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________________ जैन-दर्शन के नव तत्त्व सांख्य-दर्शन ने पच्चीस तत्त्व स्वीकार किये हैं। पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच तन्मात्रा, पाँच महाभूत, पुरुष, प्रकृति, अहंकार, मन और महत्तत्त्व (बुद्धितत्त्व)। माध्व संप्रदाय में तत्त्वों की संख्या दस है - द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, विशिष्ट, अंशी, शक्ति, सादृश्य और अभाव। मीमांसा-दर्शन तीन अवयवों को स्वीकार करता है- प्रतिज्ञा हेतु और उदाहरण। योग-दर्शन सांख्यमत-सम्मत तत्त्वों को स्वीकार करता है। वेदान्त-दर्शन एकमात्र 'ब्रह्म' को सत् मानता है और शेष सब कुछ असत् मानता हैं। अद्वैत-वेदान्त- द्रव्य, गुण, कर्म (क्रिया) और सामान्य (जाति) इन चार पदाथों को मानकर शब्दब्रह्म को एक मात्र तत्त्व मानता है। बौद्ध-दर्शन ने चार आर्य सत्य स्वीकार किये हैं- १- दुःख, २- दुःखसमुदाय, ३- दुःखनिरोध ४- दुःखनिरोध-मार्ग। जैन-दर्शन में मुख्य तत्त्व दो बताये गये है- १- जीव तथा २- अजीव । इन दो तत्त्वों का विस्तार नव (नौ) तत्त्वों में हुआ है। इन नव (नौ) तत्त्वों के ज्ञान से आत्मा परमात्मा बन सकता है, जीव शिव बन सकता है तथा नर नारायण बन सकता है। जैन दर्शन के नव (नौ) तत्त्व निम्नलिखित हैं :१- जीवतत्त्व, २- अजीवतत्त्व, ३- पुण्यतत्त्व, ४- पापतत्त्व, ५- आस्रवतत्त्व, ६- संवरतत्त्व, ७- निर्जरातत्त्व, र- बन्धतत्त्व, ६- मोक्षतत्त्व। १- जीव (तत्त्व) - जिसमें चैतन्य (जानने और देखने की शक्ति) है उसे जीव कहते २- अजीव (तत्त्व) - जो चैतन्य से रहित है, वह अजीव है। ३- पुण्य - सत्कों द्वारा लाए गए कर्म अर्थात् प्रशस्त कर्मपुद्गल पुण्य हैं। ४- पाप - पुण्य के विपरीत अप्रशस्त कर्मपुद्गल पाप हैं। ५- आस्रव - कर्मप्रवेश का द्वार और कर्मबंध का कारण मिथ्यात्वादि आस्रव है। ६- संवर - आस्रव के निरोध को संवर कहते है। ७- बंध - जीव और कर्म का मिल जाना बंध है। - निर्जरा - बँधे हुए कर्म का अंशतः क्षय निर्जरा है। t- मोक्ष - सब कर्मों से छूट जाना और सारे कर्म नष्ट होना मोक्ष है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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