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________________ २९२ जैन-दर्शन के नव तत्त्व दूसरा मत ऐसा है कि योग प्रकृति-बंध का और प्रदेश-बंध का हेतु है और कषाय स्थिति-बंध और अनुभाग-बंध का हेतु है। इस प्रकार से योग और कषाय ये दो बंध-हेतु है। तीसरा मत ऐसा है कि मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये बंध-हेतु हैं। इन चार बंध-हेतुओं के सत्तावन भेद होते हैं। उपर्युक्त बंध-हेतुओं में प्रमाद का उल्लेख नहीं है। आगम में प्रमाद को भी बंध-हेतु कहा है। (भगवती १/२) उमास्वाति ने भी प्रमाद को भी बंध-हेतु माना हैं। कर्मबंध के भिन्न-भिन्न हेतुओं का समावेश मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग - इन पाँच बंध-हेतुओं में होता हैं। आत्मा को कर्म-बंध से दूर रहने के लिए ही कर्मों के बंध के भिन्न-भिन्न हेतु ऊपर बताए गए हैं। बंध के कारण जीव की पराधीनता : जीव और कर्म के प्रदेशों के एक दूसरे में अनुस्यूत होने को 'बंध' कहते हैं।" जिस प्रकार मिश्रित दूध और पानी में पानी कहाँ है और दूध कहाँ है, यह दिखाया नहीं जा सकता, वे केवल एक ही रूप दिखाई देते हैं, उसी प्रकार बंध दशा में जीव और कर्म इतने एकरूप हुए होते हैं कि किस अंश में जीव है और किस अंश में कर्म-पुद्गल है, यह बताया नहीं जा सकता। आत्मा के समस्त प्रदेश कर्म प्रदेशों से आवरित रहते है। उसके आठ रूचक प्रदेश को छोड़कर उसका एक भी अंश कर्म से मुक्त नहीं रहता।। कर्मरहित जीव में अर्थात् मुक्त जीव में अनेक स्वाभाविक शक्तियाँ होती हैं, परंतु संसारी जीव अनन्त काल से कर्म से बद्ध होने से उन शक्तियों को प्रकट नहीं कर पाता है। जीव के साथ कर्म का बंध होने से जीव के सारे स्वाभाविक गुण आवरित हो जाते हैं। इससे आत्मा पराधीन हो जाता है। उसकी दृष्टि विशुद्ध नहीं होती और उसका ज्ञान पूर्ण नहीं होता। वह पूर्णतः चारित्रवान भी नहीं हो सकता। उसे अनेक प्रकार के सुख-दुःख भोगने पड़ते हैं। उसे निश्चित काल तक शरीर में रहना पड़ता है। तथा अनेक शरीर धारण करने पड़ते हैं। अनेक गतियों में भटकना पड़ता है। नीच और उच्च कुलों में जन्म लेना पड़ता है। उसकी अनंत शक्ति कुंठित हो जाती है। इस प्रकार कर्म के बंधन से जकड़ा हुआ जीव अनेक प्रकार से पराधीन होता है। निःसत्त्व बनता है और उसका कुछ भी वश नहीं चलता। जीव कषाय के कारण कर्मयोग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है, यही बंध है और यही जीव की परतंत्रता का कारण है। द्रव्यबंध और भावबंध : दो पदार्थों के विशिष्ट संबंध को बंध कहा जाता है। बंध के दो भेद हैं१) द्रव्यबंध और २) भावबंध। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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