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________________ २९३ १) द्रव्यबंध कर्मपुद्गल का ( कर्म-समूह का ) आत्म- प्रदेशों के साथ जो संबंध बनता है, उसे 'द्रव्यबंध' कहते हैं । द्रव्यबंध में आत्मा और कर्म पुद्गलों का संयोग होता है । परंतु ये दो द्रव्य एक नहीं होते, उनकी स्वतंत्र सत्ता बनी रहती है । जिन राग, द्वेष और मोह आदि विकारी भावों से कमों का बंध होता है, उसे भावबंध कहते हैं, अर्थात जिन चैतन्य परिणामों से कर्म बांधे जाते हैं वह भावबंध है । कर्म और आत्मा के प्रदेश का अन्योन्य प्रवेश या एक दूसरे में अनुस्यूत होना या एक क्षेत्रावगाही होना, द्रव्यबंध है ।" बेड़ियों का (बाह्य) बंधन द्रव्यबंध है और राग आदि विभावों का बंधन भावबंध है । २) भावबंध : 4. जैन-दर्शन के नव तत्त्व जिस प्रकार तिल और तेल एक रूप होते हैं उसी प्रकार जीव और कर्म एक रूप होते हैं । जिस प्रकार दूध में घी अनुस्यूत होता है, उसी प्रकार बंध में जीव और कर्म परस्पर अनुस्यूत होते हैं। जिस प्रकार धातु और अग्नि में तादात्म्य हो जाता है उसी प्रकार बंध में जीव और कर्म में तादात्म्य हो जाता है, जीव और कर्म का यह पारस्परिक बंध प्रवाह की अपेक्षा से अनादि हैं। जब मनुष्य किसी वस्तु को देखता है, तब उसके मन में विचार आता है कि यह वस्तु कितनी सुन्दर है ! वह उसे प्राप्त करना चाहता हैं । उसे प्राप्त करने के लिए अपनी संपूर्ण शक्ति खर्च करता है । इस भावना को 'राग' कहते हैं प्रत्येक संसारी मनुष्य में चाहे वह राजा हो या रंक, राग भाव होता ही है । स्वर्ग के देवताओं में भी राग-भाव होता है । 1 कोई वस्तु मनुष्य को प्रिय नहीं होती, उसके लिए उसके मन में घृणा और तिरस्कार की भावना जागृत होती है, वह उस वस्तु की तरफ देखना भी नहीं चाहता, इसी भावना को 'द्वेष' भाव कहते हैं। 1 'राग' भाव अनुकूल पदार्थ को अपनी तरफ खींचता है और 'द्वेष' भाव प्रतिकूल पदार्थ को दूर रखता हैं । परंतु ये दोनों दशाएँ आत्मा की विभावदशाएँ हैं, स्वभावदशाएँ नहीं हैं । स्वभाव दशा में पर-पदार्थ के प्रति स्नेहभाव या द्वेषभाव नहीं होता, राग और द्वेष आत्मा का शुद्ध स्वभाव नहीं है। इस प्रकार आत्मा में राग, द्वेष, मोह आदि विभाव दशा के सूचक है, ये ही बंध हेतु हैं । कर्म - पुद्गलों का आत्मा के साथ जो बंध होता है, वह द्रव्यबंध है। राग, द्वेष, मोह आदि भावबंध के समाप्त होने पर द्रव्यबंध अपने आप नष्ट हो जाता है । राग, द्वेष, मोह और कषाय आदि विकारी भावों से कर्म - पुद्गलों का बंध होता है, उस विभाव दशा ( विकृत भाव दशा) को भावबंध कहते हैं । उस विभाव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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