SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 318
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २९१ ४) कषाय ५) योग जैन दर्शन के नव तत्त्व कर्म या संसार को 'कष' कहते हैं। और 'आय' अर्थात प्राप्ति। जिसके कारण कर्म या संसार की प्राप्ति होती है, उसे 'कषाय' कहते हैं । उदाहरणार्थ, क्रोध, मान, माया और लोभ - ये चार कषाय हैं। मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्तियों को योग कहते हैं ।" आसव से कर्म आत्म-प्रदेश की ओर आते हैं। बंध से कर्म आत्म-: - प्रदेश के साथ संश्लिष्ट होते हैं। संवर से नए कर्मों का प्रवेश रूकता है, यानी नए कर्मों का बंध नहीं होता। आत्मा और कर्मपुद्गलों का जो पुनः वियोग होता है, उस वियोग की प्रक्रिया को निर्जरा और संपूर्ण वियोग को मोक्ष कहते हैं । बंध यह आस्रव और निर्जरा के बीच की स्थिति है । आस्रव के द्वारा कर्म- पुद्गल आत्म-प्रदेशों में आते हैं, निर्जरा द्वारा कर्म पुद्गल आत्म-प्रदेशों से बाहर निकलते हैं । कर्म-परमाणुओं का आत्म- प्रदेश में आना अर्थात् आस्रव और उनका अलग होना अर्थात् निर्जरा तथा उन दोनों के बीच की स्थिति ( अवस्था) को 'बंध' कहते हैं । Jain Education International प्रथमतः कर्म का आगमन आत्मा में होता है । बाद में बंध होता है। कर्म का आगमन आस्रव के बिना नहीं होता। इसलिए 'बंध' का मूलाधार या कारण - आनव तत्त्व है । मिथ्यात्व आदि हेतुओं के अभाव में कर्म- पुद्गलों का आत्मा में प्रवेश नहीं होता, इसलिए आस्रव ही बंधोत्पत्ति का कारण है आगमों में बंध के कारण यानी बंध हेतु दो प्रकार के बताए गए हैं १) राग और २) द्वेष । राग और द्वेष ये कर्म के बीज हैं। जो कोई पाप कर्म हैं, वे राग और द्वेष से ही होते हैं। टीकाकारों ने राग को माया और लोभ कहा है और द्वेष को क्रोध और मान कहा है। आगम में यह भी कहा है कि जीव इन चार कषायों के द्वारा वर्तमान में आठ कर्मों को बाँधता है, भूतकाल में उसने आठ कर्म बांधे हैं और भविष्यकाल में वह बांधेगा। वे चार कषाय हैं - १) क्रोध, २) मान, ३) माया और ४) लोभ । " एक बार गौतम स्वामी ने भगवान महावीर से पूछा " जीव द्वारा कर्म कैसे बांधा जाता है?" भगवान ने उत्तर दिया " गौतम! जीव दो स्थानों से कर्म - बंध करता है - १) राग से और २) द्वेष से । राग दो प्रकार का है १) माया और २) लोभ । द्वेष भी दो प्रकार का है। १) क्रोध, और २) मान ।” क्रोध, मान, माया, लोभ इन चारों का नाम कषाय है। इससे यह स्पष्ट होता है कि कषाय ही कर्म-बंध के हेतु हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy