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________________ २९० जैन-दर्शन के नव तत्त्व कारणों का ज्ञान कर लेना आवश्यक है। उससे ही आत्मा बंधन का त्याग कर मुक्त हो सकेगा। - वस्तुतः बंध भी आत्मा की पर्याय है और मोक्ष भी आत्मा की पर्याय है, परंतु दोनों पर्यायों में बहुत बड़ा अंतर हैं मोक्ष यह आत्मा की विशुद्ध पर्याय है तो बंध अशुद्ध पर्याय है। जब तक मोह और अज्ञान रहेगा; राग, द्वेष और मिथ्यात्व रहेंगे, तब तक बंध की पर्याय या अशुद्ध पर्याय रहेगी ही। स्व-स्वरूप में स्थित होना ही बंधन से मुक्त होना है और परभाव में, . भौतिक वस्तुओं में या पर-पदाथों में रम जाना ही यही बंधन है। जब तक बंधन, का स्वरूप समझा नहीं जाएगा, तब तक मोक्ष का स्वरूप भी समझा नहीं जाएगा। बंधन का स्वरूप समझने के बाद ही उसे नष्ट करने को प्रयत्न किया जा सकेगा। बंधन कब से ? : संसार का प्रत्येक प्राणी कर्मों के बंधन से बद्ध है। वह कब से बद्ध है, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार बंधन का प्रारम्भिक समय निश्चित न होने पर भी इतना तो निश्चित है कि वह कर्म से बद्ध है। जब सुवर्ण को खान में से निकाला जाता है, तब वह मृत्तिका से लिपटा हुआ रहता है। वह कब से मिट्टी से लिपटा हुआ है, यह हम नहीं बता सकते। परंतु वह जब तक सुवर्ण खान में रहता है, तब तक मृत्तिका के साथ ही रहता है। लेकिन खान में से निकाला जाने पर रासायनिक प्रक्रिया द्वारा उसे शुद्ध बनाया जा सकता है। मृत्तिका को अलग और सुवर्ण को अलग किया जाता है। उसी प्रकार साधना की प्रक्रिया द्वारा आत्मा को भी कमों के बंधन से मुक्त किया जाता है। बंधन के कारण : मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग- ये पाँच बंध के कारण हैं। १) मिथ्यादर्शन : जीवादि तत्त्वों पर जो श्रद्धा होती है, उसे सम्यक् दर्शन कहते है। इसके विपरीत उन तत्त्वों पर श्रद्धा न होना मिथ्यादर्शन है। २) अविरति दोषों से पराङ्मुख न होना, षट्काय जीवों की हिंसा करना और पाँच इन्द्रियों तथा मन को नियंत्रण में नहीं रखना अविरति है। ३) प्रमाद आत्मविस्मरण, पुण्य-कार्यों या शुभ कमों के विषय में अनादर भाव, कर्तव्य-अकर्तव्य का स्मरण न रखना और शुद्ध आचार के संबंध में सावधानी न रखना ये- प्रमाद हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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