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________________ अष्टम अध्याय बंध तत्त्व दूध में जैसे जल, धातु में जैसृ मृत्तिका, पुष्प में जैसी सुगंध, तिल में जैसे तेल, लौहे के गोले में जैसे अग्नि, उसी प्रकार आत्मप्रदेशों में कर्म-पुद्गल का समावेश होता है। यही "बंध" है। दो पदार्थों के विशिष्ट संबंध को 'बंध' कहते हैं। जीव कषाय युक्त होकर कर्म योग्य ऐसे पुद्गल ग्रहण करता है। यही बंध है। - इसका अर्थ यह है कि कर्मयोग्य पुद्गलों का और जीव का अग्नि और लौहपिण्ड के समान जो संबंध है, वही बंध है।' बंध दो प्रकार का होता है। पुण्य-कर्म का बंध और पाप-कर्म का बंध। पुण्यबंध के उदय से जीव को सुख प्राप्त होता है और पापबंध के उदय से अनेक प्रकार के दुःख भोगने पड़ते हैं। जब तक बंध का विपाक नहीं होता, तब तक जीव को किंचित भी सुख-दुःख नहीं होता। जब तक आम्नवों का द्वार खुला रहता है, तब तक बंध होता ही रहेगा। जहाँ-जहाँ आस्रव है, वहाँ-वहाँ बंध है ही। आगम शास्त्र में अन्य पदाथों के समान बंध को भी सत, तत्त्व, तथ्य आदि संज्ञाओं से संबोधित किया गया है। उसमें कहा है - ऐसा मत समझिए कि बंध और मोक्ष नहीं हैं, परंतु ऐसा समझिए कि बंध और मोक्ष हैं। "बंध" की व्याख्याएं: जिससे कर्म बांधा जाता है, उसे 'बंध' कहते है। जो बंधता है या जिसके द्वारा बांधा जाता है अथवा जो बंधन रूप है, वह बंध है। बंध करण या साधन है। क्योंकि अध्यात्म मार्ग में जिसके द्वारा कर्म बांधा जाता है वह बंध है। इष्ट स्थान अर्थात मुक्ति जाने में जो बाधक कारण है उसे बंध कहते हैं। कर्म-प्रदेशों का आत्म-प्रदेशों के साथ एक क्षेत्रावगाही होना बंध है। आत्मद्रव्य का कर्म द्रव्य के साथ संयोग और समवाय संबंध होता है, उसे ही बंध कहते हैं। वस्तुतः जीव और कर्म के मिश्रण को ही बंध कहते हैं। जीव अपनी प्रवृत्तियों से कर्मयोग्य पुद्गल को ग्रहण करता है। इन ग्रहण किए हुए कर्म-पुद्गलों का जीव-प्रदेशों के साथ संयोग 'बंध' हैं। बंध का स्वरूप : आचार्य शीलांक ने सूत्रकृतांग की टीका में कहा है कि आरंभ और कषाय आत्मा के परिग्रह हैं। मिथ्यात्व और अज्ञान आत्मा के बंधन हैं। जब तक इनका अस्तित्व रहेगा, तब तक आत्मा बंधन से मुक्त नहीं होगा। पूर्वबद्ध कर्म ठीक समय पर फल देकर अवश्य ही अलग होगे, परंतु उससे नए. कर्म का बंध होता रहेगा और बंध की परंपरा जारी रहेगी। इसलिए बंध का स्वरूप और उसके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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