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जैन-दर्शन के नव तत्त्व है, साथ ही किन और कैसे साधनों से इन दोषों की शुद्धि हो सकती है, इन विषयों पर चिन्तन करना ही 'अपायविचय' है। 'अपायविचय' धर्म-ध्यान का दूसरा भेद है। (३) विपाक-विचय- आसक्ति, अज्ञान और मोहवश कर्म जब विपाक अवस्था में आते (फल देते) हैं तब उनके भोग अत्यंत कष्टप्रद लगते हैं - 'जं से पुणो होइ दुहं विवागे' (उत्तराध्ययन ३२/४६)।
सुख के हृदयालादक परिणाम पर और दुःख के विपाक-दायक परिणाम पर चिन्तन करने से पाप के संबंध में भय, तिरस्कार और आकर्षण कम होता है। और आत्मा में पाप से छूटने का संकल्प जाग्रत होता है। इस प्रकार पाप के बुरे परिणाम पर और शुभ फल पर जो चिन्तन किया जाता है, उसे धर्म-ध्यान में 'विपाकविचय' कहते हैं। (३) संस्थान-विचय- संस्थान का अर्थ है- आकार। विश्व के आकार और स्वरूप के विषय में चिन्तन करना, विश्व का स्वरूप क्या है, नरक और स्वर्ग कहाँ हैं, आत्मा किन-किन कारणों से भटकता है, किन-किन योनियों में कौन-से दुःख और वेदनाएँ हैं आदि-विश्व-संबंधी विषयों के साथ आत्म-संबंध जोड़कर उनका आत्माभिमुख चिन्तन करना ‘संस्थान विचय' है।६२ धर्म-ध्यान के चार लक्षण इस प्रकार हैं - (१) आज्ञारुचि - रुचि का अर्थ है विश्वास। जिनेश्वर देवों की और सद्गुरुओं की आज्ञा पर विश्वास रखकर आचरण करना। (२) निसर्गरुचि - धर्म में, सर्वज्ञ-भाषित तत्त्वों में और सत्य-दर्शन में सहज रुचि होना ही 'निसर्गरुचि' है। (३) सूत्ररुचि - 'सूत्र' का अर्थ है भगवत्-वाणी रूप आगम। इन आगमों को सुनने पर जो रुचि उत्पन्न होती है, उसे 'सूत्ररुचि' कहते हैं। (४) अवगाढरुचि - अवगाहन अर्थात् गहराई में जाकर चिन्तन करना। जो शास्त्र के वचनों पर गहराई में जाकर चिंतन-मनन करने को उत्सुक रहता है, उसकी उत्सुकता को 'अवगाढरुचि' कहते हैं।
इन चार लक्षणों से धर्मध्यानी आत्मा पहचानी जाती है। धर्मध्यान को स्थिर रखने के लिए और उस चिन्तन-प्रवाह को अधिक स्थिर रखने के लिए धर्मध्यान के चार आलम्बन बताए गए हैं। वे इस प्रकार हैं - (१) वाचना - धार्मिक ग्रंथों का वाचन करना। (२) पृच्छना - मन में शंका उत्पन्न होने पर सद्गुरु से पूछना। (३) परिवर्तना - अभ्यास द्वारा प्राप्त ज्ञान का बार-बार स्मरण करना। (४) धर्मकथा - धर्मोपदेश स्वयं सुनना और दूसरों को देना।
___मन को धर्म-ध्यान में लीन करने के लिए जो चिन्तन किया जाता है उसे 'अनुप्रेक्षा' कहते हैं। अनुप्रेक्षा, भावना को भी कहते हैं।
धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ निम्नांकित हैं - Jain Education International
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