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जैन दर्शन के नव तत्त्व
(१) एकत्यानुप्रेक्षा - आत्मा के
अकेलेपन का चिन्तन करना ।
( २ ) अनित्यानुप्रेक्षा- वस्तु की अनित्यता का चिन्तन करना ।
(३) अशरणानुप्रेक्षा- संसार में कोई किसी की शरण नहीं है ऐसा चिन्तन करना । (४) संसारानुप्रेक्षा - संसार के स्वरूप का चिन्तन करना ।
इन चार अनुप्रेक्षाओं ( भावनाओं) का चिन्तन करने से वैराग्य - भावना प्रकट होती है। मन शान्त होता है। आत्मशान्ति प्राप्त होती है। मन को निर्मोही बनाने में इन भावनाओं का अत्यंत महत्त्व है । १३
(३) शुक्ल ध्यान शुक्ल ध्यान, ध्यान की सबसे अधिक निर्मल और परम उज्ज्वल अवस्था है । मन जब विषय कषाय से परावृत्त होता है, तब उसकी मलिनता अपने आप कम होती जाती है । मन निर्मल और उज्ज्वल होते-होते जब शुभ वस्त्र के समान पूर्णतः मलरहित हो जाता है, तब उसे शुक्लता या निर्मलता प्राप्त होती है। उस निर्मल मन की एकाग्रता और पूर्ण स्थिरता 'शुक्लध्यान' कही जाती है।
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आचार्यों ने शुक्ल ध्यान का वर्णन करते हुए कहा है कि जिस ध्यान में बाह्य विषयों से संबंध होने पर भी मन उनकी ओर आकृष्ट नहीं होता । पूर्ण वैराग्यप-अवस्था में रमण करता है । जिस ध्यान की स्थिति में साधक के शरीर पर प्रहार करने पर या छेदन भेदन करने पर भी उसके मन को कष्ट नहीं होता । शरीर को तकलीफ होने पर भी उस तकलीफ की अनुभूति मन का स्पर्श नहीं कर . सकती । भयंकर वेदनाएँ और उपसर्ग भी मन को चंचल नहीं बना सकते। साधक का चिन्तन बाह्य से अन्तर की ओर जाता है, चित्त की निर्मलता और स्थिरता प्राप्त होती है, देह होने पर भी वह स्वयं को देहमुक्त समझता है । उस अवस्था को जैन - परिभाषा में 'शुक्ल ध्यान' कहते हैं और उसीको वैदिक - परिभाषा में 'समाधि' कहते हैं ।
शुक्लध्यान जीव के सर्वोच्च आनंद का शिखर है । वहाँ पहुँचने पर आत्मा अपने स्वरूप की तंद्रा में तन्मय होकर अपने ज्ञान के साथ एकात्म हो जाता है । शुक्ल ध्यान सिद्ध होने पर ध्याता, ध्येय और ध्यान इन तीनों में तादात्म्य स्थापित हो जाता है। इस संबंध में 'वल्लभ - प्रवचन' में कहा गया है कि ध्याता, ध्यान और ध्येय ये तीनों जब एकरूप होते हैं, तब उस विशुद्ध आत्मा के समस्त दुःखों का क्षय होता है । "
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शुक्लध्यान के दो भेद हैं (१) शुक्ल और ( २ ) परम शुक्ल । (१) शुक्ल - चतुर्दशपूर्वधारी तक का ध्यान 'शुक्ल ध्यान' है ।
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गये हैं
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(२) परम शुक्ल - केवली भगवान् का ध्यान 'परम शुक्ल ध्यान' है ।
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ये दोनों भेद ध्यान की शुद्धता तथा अधिक स्थिरता की दृष्टि से किये
स्वरूप की दृष्टि से शुक्ल ध्यान के चार भेद होते हैं
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