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जैन दर्शन के नव तत्त्व
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आती-जाती हैं, परन्तु मगरमच्छ उन्हें नहीं खाता है । तब उस तंदुलमत्स्य को लगता है कि यह मगरमच्छ बड़ा आलसी तथा बेफिक्र है । यह सब मछलियों को नहीं खाता है, और वैसे ही जाने देता है । अगर मुझे इतना बड़ा शरीर प्राप्त हो जाये तो मैं एक भी मछली को नहीं जाने दूँगा, सभी मछलियों को खा जाऊँगा । वस्तुतः तन्दुलमत्स्य एक भी मछली को नहीं खा सकता, खून की एक बूँद भी नहीं गिरा सकता । परन्तु क्रूर भाव, रौद्र परिणाम और रौद्र ध्यान के कारण वह तन्दुलमत्स्य मरकर सातवें नरक में जाता है । तथा वहाँ अनन्त वेदनाएँ भोगता है। यह है - रौद्र ध्यान का दुष्परिणाम ।
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(३) धर्म ध्यान - आत्मा को पवित्र बनाने वाला तत्त्व धर्म है जिस आचरण से आत्मा विशुद्ध होता है, उसे धर्म कहा गया है। उन धार्मिक विचारों में और आत्मशुद्धि के साधनों में मन को एकाग्र करना तथा पवित्र विचारों में मन को स्थिर करना ही धर्म ध्यान है। वस्तुतः धर्म- ध्यान और शुक्ल-ध्यान आत्म-ध्यान हैं । षट्खण्डागम में कहा गया है- धर्म और शुक्ल ध्यान 'आत्म ध्यान' है । ये ही परम तप हैं। शेष समस्त तप ध्यान के साधन मात्र हैं I
धर्म ध्यान की दृढ़ता के लिए आनन्द श्रमणोपासक के समान ही अर्हन्नक श्रावक का दृष्टान्त दिया गया है । अर्हन्नक श्रावक बड़ा ही धार्मिक था । एक देवता ने उसे धर्म ध्यान से विचलित करने का प्रयत्न किया, परन्तु उसने धर्म ध्यान का त्याग नहीं किया। देवता ने अर्हन्नक श्रावक के मित्र-परिवार को भी विचलित करने की कोशिश की, परन्तु वह सफल नहीं हुआ । अर्हन्नक ने अपने मित्र-परिवार को उपदेश देकर धर्म ध्यान की उनकी निष्ठा को भी दृढ़ किया । अन्ततः हार मानकर और अर्हन्नक के समक्ष नतमस्तक होकर देवता को निकल जाना पड़ा।
आगम में धर्म ध्यान के चार भेद बताये गये हैं । वे इस प्रकार हैं (१) आज्ञाविचय - 'विचय' का अर्थ है निर्णय या विचार । आज्ञा के संबंध में चिन्तन करना 'आज्ञाविचय' है। प्रश्न उठता है कि 'आज्ञा किसकी ? इसका उत्तर यह है कि जो हमारा श्रद्धेय और परमपूज्य हो, उसीकी आज्ञा मानी जाती है । साथ ही जो स्वामी और वीतराग हो, उसी की आज्ञा मानना वास्तविक धर्म है। क्योंकि 'आणाए मामगं धम्मं ' ( आचारांग ६ / २ ) । सम्बोधसत्तरि (३२) में कहा गया है कि आज्ञा में तप और संयम है- 'आणा तवो आणाइ संजमो'। (२) अपायविचय- 'अपाय' का अर्थ है दोष या दुर्गुण । आत्मा में अनादि काल से मिथ्यात्व, प्रमाद, कषाय और योग ( अशुभ योग ) ये पाँच सुप्त दोष हैं । इन दोषों के कारण ही आत्मा जन्म-मरण के चक्र में भटकता रहता है इसीलिए उसे दुःख, वेदनाएँ और कष्ट भोगने पड़ते हैं । इन दोषों के स्वरूप का विचार करना इनसे मुक्ति कैसे मिल सकती है, किस प्रकार इन्हें कम किया जा सकता
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