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________________ २७२ जैन दर्शन के नव तत्त्व (२) मोसाणुबंधी (मृषानुबंधी) - दूसरे को फँसाने तथा विश्वासघात करने के संबंध में विचार करते रहना मोसाणुबंधी कारण है । (३) तेयाणुबंधी ( स्तेयानुबंधी ) - चोरी, लूटपाट आदि के संबंध में विचार करते रहना तेयाणुबंधी कारण है । दौलत, (४) सारक्खणाणुबंधी ( संरक्षणानुबंधी) - धन, अधिकार, प्रतिष्ठा, भोग-विलास के साधन आदि के रक्षण के संबंध में विचार करते रहना सारक्खणाणुबंधी कारण है। रौद्र ध्यान के चार लक्षण : आदि पाप कर्मों का अत्यंत (१) ओसन्नदोसे-हिंसाचार, असत्य भाषण आसक्तिपूर्वक विचार करना । (२) बहुलदोसे - भिन्न भिन्न प्रकार के पापी तथा दुष्ट विचारों में मग्न रहना । (३) अण्णाणदोसे- हिंसा आदि अधर्म के कार्यों में धर्मबुद्धि रखकर अज्ञान में आसक्ति रखना । (४) आमरणांतदोसे- स्वयं के पापाचरण के लिए पश्चात्ताप न करके मृत्युपर्यन्त क्रूरता और द्वेष से भरा होना । ५६ रौद्र ध्यान से युक्त व्यक्ति दूसरे को तकलीफ और पीड़ा देने में मग्न रहता है । परन्तु आर्त ध्यान से युक्त व्यक्ति अपनी अग्नि से अपना ही घर जलाता है । इसी तरह रौद्र-ध्यानयुक्त व्यक्ति अपना घर तो जलाता ही है, दूसरे के घर को जलाकर भी प्रसन्न होता है । मृत्यु के बाद इन दोनों ध्यानों से नरक और तिर्यंच गति मिलती हैं। रौद्र और आर्त ध्यान को केवल इसीलिए ध्यान कहा गया है क्योंकि इनमें चिन्तन की एकाग्रता होती है। इस चिन्तन के अशुभ और पतनकारक होने पर भी इसमें एकाग्रता होती है। आर्त और रौद्र ध्यान के संदर्भ में भगवान् महावीर ने कहा है- 'अट्ट रूदाणि वज्जिता झाएज्जा सुसमाहिए । धम्म सुक्काइं झाणाइं झाणं तं तु बुहा वए ।। ( दशवैकालिक, अ० १, वृत्ति) । समाधि और शांति की कामना करने वाले को, आर्त और रौद्र ध्यान का त्याग करके, धर्म और शुक्ल ध्यान का चिन्तन करना चाहिए। ये दोनों ही 'ध्यानतप' हैं । 1 सारांश यह है कि ध्यान चार प्रकार का होने पर भी, चारों ध्यान तप नहीं हैं । ध्यापतप की कोटि में तो केवल दो ही ध्यान आते हैं धर्मध्यान और शुक्लध्या 1 जैन - शास्त्रों में रौद्र ध्यान को स्पष्ट करने के लिए एक तन्दुल मत्स्य का दृष्टान्त दिया गया है। तन्दुल मत्स्य एक छोटे से चावल के दाने के बराबर होता है । परन्तु वह पंचेन्द्रिय और मन से युक्त होता है। वह मगरमच्छ की भौं पर बैठा रहता है। सागर में अनेक मछलियाँ उस मगरमच्छ के नजदीक से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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