SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 298
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७१ जैन-दर्शन के नव तत्त्व (२) मणुन्न संपओग - प्रिय वस्तुओं के वियोग से उत्पन्न होने वाली चिन्ता। (३) आयंक संपओग - रोग एवं व्याधि के कारण उत्पन्न चिन्ता। (४) परिजुसिय काम-भोग संपओग - काम, भोग आदि सुख के साधन सुरक्षित रखने की चिन्ता। ___ ऊपर के चार भेदों को अनुक्रम से अमनोज्ञ संप्रयोग, मनोज्ञ संप्रयोग, आतंक संप्रयोग, प्राप्त काम-भोग संप्रयोग भी कहा गया है। आर्त-ध्यान के चार लक्षण :(१) क्रंदनता - रोना, विलाप करना तथा चिल्लाना ही क्रन्दनता है। (२) शोचनता - शोक करना तथा चिन्ता करना ही शोचनता है। (३) तिप्पणता - आँसू बहाना ही तिप्पणता है। (४) परिदेवना - हृदय पर आघात होगा, ऐसा शोक करना। ___अतीव उदासीनता, व्याकुलता और दुःख से पीड़ित होकर सिर, छाती आदि पीटना ही परिदेवना है। ये चार लक्षण मन की दुःखित और व्यथित दशा के सूचक हैं। इन लक्षणों से यह पहचाना जा सकता है कि कौन व्यक्ति दु:खी, आर्त और चिन्ताग्रस्त रानी श्रीदेवी के उदाहरण से आर्त ध्यान की कल्पना को सुस्पष्ट किया जा सकता है । सम्राट चक्रवर्ती की रानी. श्रीदेवी चक्रवर्ती की मृत्यु के बाद छह महीने तक लगातार रोती है और शोक करती है। और अन्ततः आर्त ध्यान के प्रभाव से, मरकर छठे नरक में जाती हैं। (२) रौद्र ध्यान - आर्त ध्यान में दीनता, हीनता और शोक की प्रबलता होती है। रौद्र ध्यान में क्रूरता और हिंसक भाव मुख्य रूप से होता है। आर्त ध्यान बहुत आत्मघाती होता है। रौद्रध्यान आत्मघात के साथ पराघात भी करता है दुःखी व्यक्ति जब अपना दुःख दूर होते नहीं देखता और दूसरों से सहानुभूति और सहयोग के विपरीत उसे अपमान और तिरस्कार मिलता है, तब वह व्यक्ति प्रायः आक्रामक और असहाय हो जाता है। पराभूत मनुष्य किसी भी मार्ग के द्वारा अपना क्रोध प्रकट करता है। उसके क्रोध में दीनता के स्थान पर क्रूरता और हिंसक आक्रमण की भावनाएँ भड़क उठती हैं। यह आक्रामक भावना जब तक भावना के रूप रहती है अर्थात् चिन्तन में रहती है तब तक वह 'रौद्र ध्यान' होती है। और जब यह आक्रामक भावना आचरण में परिणत हो जाती है । तब वह व्यक्ति को रौद्र आचरण कराने वाली बनाती है। रौद्र ध्यान के चार कारण और चार लक्षण बताये गये हैं। रौद्र ध्यान के चार कारण :(१) हिसाणुबंधी (हिसानुबंधी) - किसी को पीटने सताने या उसके संबंध में कारनामे करने संबंधी विचार करते रहना ही हिसाणुबंधी कारण है। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy