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________________ २७० जैन-दर्शन के नव तत्त्व ____ आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है - ‘अपने विषय (ध्येय) में मन का एकाग्र होना ध्यान है' ५५ . आचार्य भद्रबाहु ने भी कहा है - 'चित्तस्सेगग्गया हवइ झाणं' (आवश्यकनियुक्ति, १४५६) । चित्त को किसी भी विषय पर स्थिर करना अर्थात् एकाग्र करना 'ध्यान' है। मन जहाँ, जिस विषय में लगा हुआ है, वहाँ वह जब तक स्थिर रहता है, तब तक उस विषय का ध्यान होता है। इसलिए 'ध्यान' का प्रथम अर्थ है - ‘मन का एक विषय में स्थिर रहना'। आचार्य सिद्धसेन ने ध्यान की व्याख्या इस प्रकार की है - 'शुभैकप्रत्ययो ध्यानम्' (द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका १८/११) अर्थात् शुभ और पवित्र आलंबन (अवयव) पर मन का एकाग्र होना 'ध्यान' है। आचार्यों ने ध्यान के दो भेद किये हैं - (१) शुभ ध्यान और (२) अशुभ ध्यान।। जिस प्रकार गाय का दूध और 'थूहर' (एक विषैली वनस्पति) का दूध - दोनों दूध ही हैं, और उन्हें दूध कहा भी जाता है, परन्तु दोनों में महान भेद है। एक अमृत है तो दूसरा विष है। गाय का अमृतमय दूध मनुष्य के जीवन को शक्ति देता है। लेकिन थूहर का विषमय दूध मनुष्य को मार डालता है। इसी तरह ध्यान-ध्यान में भी अन्तर है। एक शुभ ध्यान है, तो दूसरा अशुभ ध्यान। शुभ ध्यान मोक्ष का हेतु है, तो अशुभ ध्यान नरक का हेतु है। चित्तरूपी नदी की दो धाराएँ हैं - चित्तनाम नदी उभयतो वाहिनी, वहति कल्याणाय पापाय च अर्थात् चित्तरूपी नदी दोनों ओर से बहती है, कभी कल्याण के मार्ग से और कभी पाप के मार्ग से। चित्त की इसी उभयमुखी गति के कारण ध्यान के दो भेद किये गये हैं - (१) शुभप्रशस्त ध्यान और (२) अशुभप्रशस्त ध्यान। शुभ ध्यान दो प्रकार का है और अशुभ ध्यान भी दो प्रकार का है। इस प्रकार ध्यान के कुल मिलाकर चार भेद होते हैं। वे हैं - (१) आर्तध्यान, (२) रौद्र ध्यान, (३) धर्म ध्यान और (४) शुक्ल ध्यान।६ (१) आर्त ध्यान - आर्त ध्यान अशुभ माना गया है। दुःख, पीड़ा, चिन्ता, शोक आदि से संबंधित भावना 'आर्त' है। जब भावना में दीनता, मन में उदासीनता, निराशा और रोग आदि के कारण व्याकुलता; अप्रिय वस्तुओं के योग से आनन्द, तथा प्रिय वस्तुओं के वियोग से दुःख आदि संकल्प मन में होते हैं; तब मन की स्थिति बड़ी दयनीय और अशुभ होती है। इस प्रकार के विचार जब मन में जमा होते हैं और मन चिन्ता तथा शोकरूपी सागर में डूब जाता है, तब वह आर्तध्यान की कोटि में पहुँचता है। ऐसे विचार अनेक कारणों से उत्पन्न होते हैं। उन कारणों का वर्गीकरण करते समय आर्त ध्यान के चार कारण और चार लक्षण बताये गये हैं। आर्त-ध्यान के चार कारण : (१) अमण्णुन्न संपओग - अप्रिय बातों से संबंध होने पर उन बातों का संबंध ___छूट जाने की चिन्ता। Jain Edfication International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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