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________________ २६५ जैन दर्शन के नव तत्त्व हो सकता है, इसलिये पहले मनः शुद्धि कैसे की जाय, किन-किन साधनों से और किन-किन प्रक्रियाओं से मन को निर्मल व निर्दोष बनाया जाय, इसका विचार करना चाहिये । 'सुष्ठु आ मर्यादया अधीयते इति स्वाध्याय: यह व्याख्या आचार्य अभयदेव ने स्थानांग टीका ( ५ / ३ / ४६५) में की है । सत् शास्त्र का मर्यादापूर्वक वाचन करना तथा अच्छे ग्रंथों का ठीक प्रकार से अध्ययन करना ही 'स्वाध्याय' है । आलस्य का त्याग कर ज्ञान अध्ययन में लीन होना अथवा विविध प्रकार का अभ्यास करना भी स्वाध्याय है । स्वाध्याय के कारण ज्ञान का प्रतिबिम्ब हृदय पर पड़ता है। जिस प्रकार दीवार को बार-बार घिसने पर वह चमकने लगती है और दीवार के सामने जो वस्तु आती है, उसका प्रतिबिम्ब दीवार पर दिखाई देने लगता है । उसी प्रकार स्वाध्याय के कारण मन इतना निर्मल और पारदर्शक बनता है कि शास्त्र का रहस्य उसमें प्रतिबिम्बित होने लगता है । इसलिए स्वाध्याय एक अभूतपूर्व तप है। 'स्वाध्याय' शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए विद्वानों ने कहा है 'स्वस्य स्वस्मिन् अध्यायः अध्ययनं स्वाध्यायः । स्वयं अध्ययन करना अर्थात् आत्मचिन्तन-म‍ - मनन करना ही स्वाध्याय कहलाता है । स्वाध्याय का महत्त्व :- जिस प्रकार शरीर के विकास के लिए व्यायाम और भोजन की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार बुद्धि के विकास के लिए स्वाध्याय की आवश्यकता होती है । स्वाध्याय का जीवन में कितना महत्त्व है इसे मानव अनुभव से ही समझ सकता है। मनुष्य के विकास के लिए सत्संगति की बड़ी महिमा बतायी जाती है परन्तु सत् शास्त्र का महत्त्व सत्संगति से भी अधिक है। सत्संगति हर बार नहीं मिल सकती। साधुजनों का परिचय और सहवास कहीं मिलता है और कहीं नहीं मिलता लेकिन सत् शास्त्र हर समय मनुष्य के साथ रहता है। अँग्रेजी का प्रसिद्ध विद्वान् टपर कहता है 'Books are our best friends' अर्थात् ग्रंथ हमारे सर्वश्रेष्ठ मित्र हैं | - एक विवेचक ने कहा है - ' ग्रन्थ ज्ञानी लोगों की जीवन्त समाधि हैं'। कुछ ग्रन्थों में ऋषभदेव, अरिष्टनेमि और महावीर हैं, तो कुछ ग्रन्थों में राम, कृष्ण, युधिष्ठिर, वाल्मीकि, सूरदास, तुलसीदास और कबीर आदि हैं। जब हम ग्रन्थ खोलते हैं, तब लगता है कि महापुरुष मानो उठकर हमारे साथ बोलने लगते हैं और हमारा मार्गदर्शन करते हैं । मनुष्य को सर्वप्रथम रोटी की आवश्यकता होती है। वह जीवन देती है 1 परन्तु सत् शास्त्र की, उससे भी अधिक आवश्यकता है। क्योंकि सत् शास्त्र जीवन की कला सिखाता है । इस संदर्भ में लोकमान्य तिलक ने कहा है 'मैं नरक में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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