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________________ २६४ जैन-दर्शन के नव तत्त्व असंगिहीय परिजणस्स संगिण्हणयाए अब्भुट्ट्यव्वं भवइ। रुग्ण अवस्था में तथा संकट के समय मनुष्य बेचैन हो जाता है। उसका चित्त क्षुब्ध और व्याकुल होता है। ऐसी अवस्था में वह धर्म से और सत्कर्म से भ्रष्ट भी हो सकता है। अपनी मर्यादा को छोड़कर असंयमी बन सकता है और दुराचार में प्रवृत्त हो सकता है। इससे पतित होकर वह विनाश के मार्ग पर जा सकता है। मनुष्य को संकट के समय और दुःख के समय जो धीरज बँधाता है, मदद करता है, उसे आश्रय देता है और उसे असंयम तथा अधःपतन से बचाता है, वह उस पर महान् उपकार करता है। एक प्रकार से उसे जीवन प्रदान करता है और उसकी आत्मा को सच्चे सुख की ओर ले जाता है। इस प्रकार 'सेवा' संकट के समय मनुष्य के धर्म की रक्षा कर सकती है। वैयावृत्य के दस भेद हैं - (४) (५) (१) आयरिय वेयावच्चे . आचार्यों की सेवा करना। (२) उवज्झाय वेयावच्चे - उपाध्यायों की सेवा करना। थेर वेयावच्चे - सब दृष्टियों से श्रेष्ठ लोगों की सेवाकरना। तवस्सि वेयावच्चे - तपस्वियों की सेवा करना। गिलाण वेयावच्चे रोगियों की सेवा करना। सेह वेयावच्चे नव-दीक्षित मुनियों की सेवा करना। कुल वेयावच्चे - कुल की सेवा करना। (८) गण वेयावच्चे - गण की सेवा करना। (E) संघ वेयावच्चे . संघ की सेवा करना। (१०) साहम्मिय वेयावच्चे - सहधार्मिक की सेवा करना। इन दस भेदों में साधु-जीवन से संबंधित समस्त समूह आ गया है। इन दस साधकों की सेवा करना, उनकी परिचर्या करना और उन्हें सुख-शान्ति प्राप्त हो ऐसा आचरण करना ही वैयावृत्य है। सेवा या वैयावृत्य वास्तव में परम धर्म, सर्वोत्तम तप और मोक्ष-मार्ग का उत्कृष्ट सोपान है। (१०) स्वाध्याय तप : यह अभ्यन्तर तप का चौथा भेद है। पूर्व में बताया है कि तप का उद्देश्य केवल शरीर को क्षीण करना ही नहीं है, अपितु तप का मूल उद्देश्य हैअन्तरर्विकार को क्षीण करके मन को निर्मल एवं स्थिर बनाना और आत्मा का स्वरूप प्रकट करना । मानसिक शुद्धि के लिए तप के विविध स्वरूपों का वर्णन जैन-शास्त्रों में किया गया है। उनमें स्वाध्याय और ध्यान ये दो तप प्रमुख हैं। स्वाध्याय मन को शुद्ध करने की प्रक्रिया है और ध्यान मन को स्थिर करने की। शुद्ध मन ही स्थिर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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