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________________ जैन-दर्शन के नव तत्त्व २६३ का गौरव है, मधुरता के कारण अमृत जगत्प्रिय है, उसी प्रकार विनय के कारण मनुष्य संपूर्ण विश्व में प्रिय और आदरणीय होता है। जैन धर्म में विनय का उपदेश आत्म-विकास के लिए, ज्ञान-प्राप्ति के लिए और गुरुजनों की सेवा द्वारा कर्म - निर्जरा के लिए दिया गया है 1 इस दृष्टि से विनय तप जीवन में इहलोक और परलोक के लिये लाभकारी है । विनय से लोकप्रियता और आदर बढ़ता है, साथ ही आत्मा सरल, शुद्ध और निर्मल बनता है । " (६) वैयावृत्य तप : 1 यह अभ्यन्तर तप का तीसरा भेद है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है वह समाज में रहता है। उसे दूसरे के सहयोग की अपेक्षा होती है। सुख-दुःख के समय, संकट के समय तथा रोग ग्रस्त होने पर उसे अन्य किसी के सहयोग की अपेक्षा होती है। वस्तुतः प्राणिमात्र में परस्पर उपकार की भावना होती है। आचार्य उमास्वाति ने जीव का लक्षण बताते हुए कहा है - परस्परोपग्रहं जीवानाम् - तत्त्वार्थसूत्र ५ / २१ जीव में परस्पर सहयोग और उपकार करने की वृत्ति होती है । भगवद्गीता में भी परस्पर सहयोग के संबंध में कहा गया है। - परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ - भगवद्गीता ३/११ । परस्पर उपकार की यह वृत्ति छोटे-बड़े सब जीवों में मिलती है। उदाहरणार्थ- चींटी, मधुमक्खी, हाथी, हिरन, गाय आदि पशु-पक्षी समूह में रहकर एक दूसरे को सहयोग देते हैं 1 मनुष्य तो अत्यन्त विकसित प्राणी है। वह दूसरे की सेवा करता है और कराता है। उसमें सहयोग, सेवा और वैयावृत्य का उच्च संकल्प होता है। I जैन-दर्शन में परस्परोपग्रह की भावना पर जोर दिया गया है। वैयावृत्य के सेवा, शुश्रूषा, पर्युपासना, धार्मिक वात्सल्य आदि नाम हैं और जीवन के साथ उनका घनिष्ठ संबंध जोड़ा गया है। एक-दूसरे के जीवन में, धर्म की साधना में, आत्म-विकास में, साथ ही जीवन में और जीवन-विकास में सहयोग करना ही वैयावृत्य तपश्चरण है । २ एक बार गणधर गौतम ने पूछा “भगवन्! आपने सेवा वैयावृत्य का विशेष महत्त्व बताया है, वैयावृत्य करने का भी बहुत उपदेश दिया है, परन्तु वैयावृत्य के द्वारा आत्मा को फल की प्राप्ति कैसे होती है?" - भगवान् ने उत्तर दिया- " वैयावृत्य करने से आत्मा तीर्थंकर - नाम - गोत्र कर्म का उपार्जन करता है। यही वैयावृत्य का महान् फल है। उसके आचरण से आत्मा विश्व के सर्वोत्कृष्ट पद की प्राप्ति कर सकता है । ४३ जिस किसी के पास आश्रय नहीं है उसे सहायता, सहयोग और आश्रय देने के लिए सदैव तत्पर रहने की जरूरत है। इसीलिए कहा गया है - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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