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________________ जैन दर्शन के नव तत्त्व 1 जिससे आठ कर्मों का विनय ( दूर होना) होता है, उसे विनय कहते हैं I अर्थात् विनय आठ कर्मों को दूर करता है और उससे चार गतियों का अंत करने वाले मोक्ष की प्राप्ति होती है । इसीलिए सर्वज्ञ भगवान् ने उसे 'विनय' कहा है उनका अभिप्राय यह है कि कर्मों का नाश करने को विनय कहते हैं प्रवचन - सारोद्धार ग्रंथ में भी इसी प्रकार की व्याख्या उपलब्ध होती है - 'विनयति क्लेशकारकमष्टप्रकारं कर्म इति विनयः' अर्थात् क्लेशकारक जो आठ कर्म हैं, उन्हें जो दूर करता है, वह विनय है । 1 विनय शब्द तीन अर्थों में प्रयुक्त होता है ३७ २६२ (१) अनुशासन, ( २ ) आत्म-संयम तथा शील (सदाचार) तथा (३) नम्रता और सद्व्यवहार । जैन-दर्शन में विनय को इतना व्यापक रूप दिया गया है कि जीवन के सारे क्षेत्र विनय से युक्त हैं। संपूर्ण जीवन को विनय की सुगंध ने सुगंधित किया गया है। विनय के अनेक भेद - प्रभेद हैं । भगवतीसूत्र में विनय के सात भेद बताये गये हैं। वे इस प्रकार हैं- (१) ज्ञान - विनय, (२) दर्शन - विनय (३) चारित्र्य-विनय, (४) मन- विनय, (५) वचन - विनय, (६) काय-विनय एवं (७) लोकोपचार- विनय । इन सात विनय-भेदों का अर्थ इस प्रकार बताया गया है(१) ज्ञान - विनय : ज्ञानी लोगों के साथ विनयपूर्ण व्यहार करना । (२) दर्शन - विनय : सम्यक्त्व का आदर करना और सम्यक् दृष्टि रखना। साथ ही गुरुजनों का सम्मान करना तथा उनकी सेवा करना । (३) चारित्र्य - विनय : चारित्र्यसंपन्न व्यक्तियों के साथ विनयपूर्ण व्यवहार करना । ( ४ ) मन- विनय : मन पर अनुशासन रखना । (५) वचन-वनय : सुंदर, सौम्य और सर्वजन - सुखकारी वचन बोलना । (६) काय-विनय · उपयोगपूर्वक चलना, रुकना, उठना और बैठना अर्थात् यत्नपूर्वक इंद्रियों की हलचल करना । (७) लोकोपचार - विनय : इसे 'लोकव्यहार' भी कहते हैं। सत्य, मधुर और प्रिय भाषा बोलना । साथ ही किसी के भी साथ द्वेषपूर्ण व्यवहार न करना । ४० विनय का उक्त स्वरूप मुख्यतः मन के अहंकार और दुर्भाव को दूर करने के लिए बताया गया है, क्योंकि अहंकार मोक्ष प्राप्ति में बाधक होता है । इसलिए विनय का आचरण करना चाहिए । विनय का फल मोक्ष है । आगमकारों ने भी उद्घोषित किया है कि जिस प्रकार वृक्ष का उद्गम मूल से होता है और उसका अन्तिम फल रस होता है, उसी प्रकार धर्म रूपी वृक्ष का मूल विनय है और उसका अन्तिम फल रस अर्थात् मोक्ष है एवं धम्मस्स विणओ मूलं परमो से मुक्खो - दशवैकालिक ६/२/२ । एक प्राचीन आचार्य ने विनय का जीवनव्यापी प्रभाव बताते हुए कहा है - कि जिस प्रकार सुगंध के कारण चन्दन की महिमा है, सौम्यता के कारण चन्द्रमा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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