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जैन-दर्शन के नव तत्त्व अनुचित आचरण के लिए मन में पश्चात्ताप करने लगता है। ये दोष काँटे के समान उसके हृदय में चुभते रहते हैं। और जल्दी से जल्दी वह उन दोषों को निकाल देने का प्रयत्न करता है। वह स्वयं के लिए प्रायश्चित्त की माँग करता है
और गुरुजन उसे उचित प्रायश्चित्त बता देते हैं कि 'तू इस दोष की विशुद्धि के लिए इस प्रकार के तप का आचरण कर'। सारांश में यही प्रायश्चित्त की प्रक्रिया
प्रायश्चित्त तप सिद्ध करता है कि प्रत्येक आत्मा अपने दोषों का प्रक्षालन कर सकता है। इसके लिए कहीं भी जाने की जरूरत नहीं है। केवल हृदय को शुद्ध करने की आवश्यकता होती है। वैदिक ग्रंथों में पाप-मुक्ति के लिए जहाँ ईश्वर के चरणों में सब कुछ अर्पित करने की सुविधा है, वहीं जैन-धर्म में हृदय को अतीव सरल बनाकर गुरुजनों के समक्ष पाप को प्रकट कर, उसके लिए तप-साधना करने की विधि है। क्योंकि कुछ दोष केवल पश्चात्ताप से ही दूर हो सकते हैं। इसी दृष्टि से प्रायश्चित्त को तप मानकर उसका विस्तृत वर्णन जैन-शास्त्रों में किया गया है और मुक्ति (मोक्ष) का मार्ग बताया गया है।५
(८) विनय तप :
__ अभ्यन्तर तप का दूसरा भेद विनय तप है। विनय का संबंध हृदय से है। यह आत्मिक गुण है। जिसका हृदय कोमल है, वही विनय-तप का आचरण कर सकता है।
विनय एक प्रचलित शब्द है। इसलिए इसका अर्थ बताने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। साधारणतया प्रत्येक व्यक्ति समझता है कि विनय के द्वारा नम्रता
और शिष्टाचार की शिक्षा दी जाती है, परन्तु वास्तविकता यह है कि विनय शब्द का अर्थ व्यापक है। विनय में अनेक प्रकार की भावनाओं का मिश्रण है। आचायों ने विवेचन एवं व्युत्पत्ति के द्वारा इसके विभिन्न गूढ़ अथों को ध्वनित करने का प्रयत्न किया है। 'विनय' का अर्थ है-मन तथा आत्मा का अनुशासन।
__विनयशील व्यक्ति पाप एवं असत् आचरण से डरता है। 'विनीत' की व्याख्या करते हुए कहा गया है- 'हिरिमं पडिसंलीणे सुविणीएति वुच्चइ' (उत्तराध्यन ११/१३)। जो लज्जाशील है और इन्द्रियों का दमन करने वाला है, उसे सुविनीत कहते हैं।
दःशील और असदाचारी व्यक्ति, सड़े हुए कानवाली कुतिया की तरह हर समय तिरस्कृत और अपमानित होता है। लोग उससे घृणा करते हैं।३६ इसलिए दुःशील को बुरे परिणाम को ध्यान में रखकर सुशील का आचरण कारना चाहिए। विनय की उपासना करनी चाहिए। गुरुजनों के समक्ष आसन पर स्थिर होकर सभ्यतापूर्वक बैठना, उनके उपदेशों से क्रोधित न होना, कम बोलना, पूछने से पहले न बोलना, उन्हें प्रसन्न करके विद्याभ्यास में तल्लीन रहना - इसी में समस्त शील और सदाचार निहित है, जो कि विनय का ही एक भाग है।
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