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________________ २६० जैन-दर्शन के नव तत्त्व जैन-धर्म की तप-विधि बाह्य से अंतर की ओर प्रगति करती है। जैन-दर्शन में तपों का क्रम इस प्रकार योजनाबद्ध है कि साधक हमेशा अपने तपश्चरण में आगे की ओर प्रगति करता जाता है। अभ्यन्तर तप में मन की विशुद्धि, सरलता और एकाग्रता की विशेष साधना होती है। बाह्य तपों की साधना से साधक अपने शरीर को जीतता है और शरीर का संशोधन करता है। बाह्य तप के समान ही अभ्यंतर तप के भी छह सोपान हैं। उनके नाम हैं - (१) प्रायश्चित्त, (२) विनय, (३) वैयावृत्य, (४) स्वाध्याय, (५) व्युत्सर्ग और (६) ध्यान। ये तप बाह्य द्रव्य की अपेक्षा नहीं रखते। ये अंतःकरण के व्यापार से होते हैं इसलिए इन्हें अभ्यन्तर तप कहते हैं।३१ (७) प्रायश्चित्त : धारण किए हुए व्रतों में प्रमाद के कारण लगे दोषों की शुद्धि करना प्रायश्चित्त तप कहलाता है। जिससे पाप का नाश होता है अथवा जो बहुधा चित्त की विशद्धि करता है, उसे प्रायश्चित्त कहते हैं। दोष-शुद्धि के लिए उचित प्रायश्चित्त लेकर सम्यक् प्रकार से दोषों का निराकरण करना 'प्रायश्चित्त' तप है।३२ राजकीय नियमों में जिस प्रकार अपराध के लिए दण्ड की व्यवस्था की गई है, उसी प्रकार धार्मिक नियमों में दोष के लिए प्रायश्चित्त की व्यवस्था की गई है। प्रायश्चित्त दोष की विशुद्धता के लिए होता है। 'प्रायश्चित्त' शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है - प्रायः और चित्त। प्रायः का अर्थ है - पाप और चित्त का अर्थ है - उस पाप का विशोधन करना। अर्थात् पाप को शुद्ध करने की क्रिया का नाम ही 'प्रायश्चित्त' है।३३ अकलंकदेव के मतानुसार प्रायः शब्द अपराध के लिए उपयोग में लाया जाता है और चित्त का अर्थ शोधन है। अतः जिस क्रिया से अपराध की शुद्धि होती है, वही प्रायश्चित्त है। प्राकृत भाषा में प्रायश्चित को पायच्छित्त कहा जाता है। पायच्छित्त शब्द की व्युत्पत्ति बताते हुए आचार्य कहते हैं . 'पाय अर्थात् पाप और छित्त अर्थात छेदन करना'। जो क्रिया पाप का छेदन करती है, अर्थात् पाप को दूर करती है, उसे 'पायच्छित्त' कहते हैं ___ 'पावं छिंदइ जम्हा पायच्छित्तं भण्णइ तेण'। पंचाषक, सटीक विवरण, १६/३ प्रायश्चित्त शब्द की इस परिभाषा से स्पष्ट होता है कि पाप या दोष की विशुद्धि के लिए जो क्रियाएँ की जाती हैं, उन्हें प्रायश्चित्त कहा जाता है। मनुष्य प्रमाद में अनुचित कार्य करता है, दोषों का सेवन करता है, अनेक अपराध करता है, परन्तु जिसकी आत्मा जागरूक रहती है वह धर्म अधर्म का विचार करता है। जिसके मन में, परलोक में अच्छी गति प्राप्त हो' ऐसी भावना रहती है वह उस Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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