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जैन दर्शन के नव तत्त्व
कायक्लेश तप का व्यावहारिक जीवन में भी बहुत महत्त्व है । मनुष्य को कोई भी महान् कार्य सिद्ध करने के लिए कष्ट सहन करने पड़ते हैं। किसी भी अच्छे काम में अनेक संकट आते रहते हैं। 'श्रेयांसि बहुविघ्नानि' । परंतु इन संकटों को पार करने के लिए साहस और सहिष्णुता रूपी नौका की आवश्यकता है। साथ ही आत्म- बल और मनोबल की आवश्यकता होती है। । सुकुमार और कोमल लोग साधना नहीं कर सकते । सुकुमारता का त्याग कर शरीर को आतापना से तपाना चाहिए- 'आयावयाहि चय सोगमल्लं' - दशवैकालिक २/५ कायक्लेश-तप हमारे जीवन को सुवर्ण के समान उज्ज्वल बनाता 1 यद्यपि साधु को दृष्टि में रखकर या लक्ष्य करके यह तप बताया गया है । परन्तु सामान्य मनुष्य भी यह तप कर सकता है। आसन लगाकर ध्यान करना, उपवासों का संकल्प करना, शरीर और शिष्य के प्रति प्रेम को कम करना, शरीर की आदतों को मर्यादित करना, इस प्रकार की सम्पूर्ण साधना ही कायक्लेश तप की आराधना है।
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अनेक प्रकार के प्रतिमायोग धारण करना, मौन रखना, आतापना लेना, वृक्ष के नीचे निवास करना आदि से शरीर को कष्ट देना भी कायक्लेश है । वास्तविक कायक्लेश-तप का उद्देश्य एक ही है और वह है शरीर के प्रति आकर्षण को कम करना अर्थात् शरीर के मोह को छोड़ देना । इस उद्देश्य को पूर्ण करने के लिए जो साधन उपयोग में लाये जाते हैं, वे सब कायक्लेश- तप कहलाते हैं
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अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश - ये छह बाहूय तप हैं । इन तपों का सम्बन्ध बाहूय वर्तन, उदाहरणार्थ खाना-पीना आदि शारीरिक क्रियाओं से है । यह अन्य लोगों की दृष्टि में आ सकता है। जैसे उपवास के कारण शरीर का कृश होना या कायक्लेश से शारीरिक दुर्बलता आना आदि ।
जिस प्रकार अग्नि संचित तृण आदि ईंधन को भस्म करती है, उसी तरह अनशन आदि तप अर्जित मिथ्यादर्शन आदि कर्मों का दाह करते हैं और देह तथा इन्द्रियों की विषय-प्रवृत्ति को रोककर देह आदि को तपाते हैं, इसलिए इन्हें 'तप' कहते हैं। इससे इन्द्रिय - निग्रह सहज होता है ।
ऊपर बाहूय-तप के जो छह भेद बताए गये हैं, उनमें से प्रत्येक तप का फल संगत्याग, शरीर - लाघव, इन्द्रिय-विजय, संयम-रक्षण और कर्म - निर्जरा है । अर्थात् इन तपों का आचरण करने से शरीर का मोह ( आसक्ति ) दूर होता है, अन्तर्बाह्य समस्त परिग्रह छूट जाते हैं तथा निर्ममत्व एवं निरहंकाररूपत्व की सिद्धि होती है। ऐसे तप करने से शरीर को लघुता प्राप्त होती है, प्रत्येक कार्य निर्दोष होता है, संयम होता है और कर्म की निर्जरा होती है । ३°
यहाँ तक बाह्य तप के
संबंध में विचार किया गया है। अब अभ्यंतर तप
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का विवेचन किया जायेगा ।
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