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________________ २६६ जैन-दर्शन के नव तत्त्व भी उन सत् शास्त्रों का स्वागत करूँगा, क्योंकि सत्-शास्त्र एक अद्भुत शक्ति है। वह जहाँ होगी वहाँ अपने आप ही स्वर्ग बन जायेगा, इसलिए सत् शास्त्र का अध्ययन जीवन में अत्यंत आवश्यक है। यही कारण है कि सत् शास्त्र को 'तीसरा नेत्र' ('शास्त्रं तृतीयं लोचनम्') कहा गया है। 'सर्वस्य लोचनं शास्त्रं' ऐसा भी एक उल्लेख मिलता है। व्यावहारिक जीवन में सत् शास्त्र के अध्ययन का यह महत्त्व है। आध्यात्मिक दृष्टि से शास्त्र-स्वाध्याय का इससे भी अधिक महत्त्व है। भगवान् महावीर ने अपने अन्तिम उपदेश में कहा है - स्वाध्याय के सातत्य से समस्त दुःखों से मुक्ति मिलती है'।" अनेक जन्मों में संचित अनेक प्रकार के कर्म स्वाध्याय से क्षीण होते हैं - बहुमवे संचियं खलु सज्झाएण खणे खवइ' (चंद्रप्रज्ञप्ति ६१)। स्वाध्याय से ज्ञानावरणीय कर्मों का क्षय होता है। स्वाध्याय एक बड़ी तपश्चर्या है इसलिए आचार्यों ने कहा है - 'न वि अत्थि न वि अ होही सज्झाय समं तवोकम्म।' - बृहतकल्पभाष्य ११६६ और चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्र ८६ । वैदिक ग्रन्थों में भी, जैन-दर्शन के समान, स्वाध्याय को तप माना गया है। 'तपो हि स्वाध्यायः' (तैत्तिरीय आरण्यक २/१४) स्वाध्याय स्वयं ही एक तप है । 'स्वाध्यायान् मा प्रमदः' (तैत्तिरीयोपनिषद् १/११/१) अर्थात् स्वाध्याय से कभी प्रमाद नहीं करना चाहिए। योगदर्शनकार पतजलि ने कहा है - 'स्वाध्यायादिष्टदेवतासंप्रयोगः' अर्थात् स्वाध्याय से इष्ट देव का साक्षात्कार होने लगता है। जैन-आगम में स्वाध्याय के पाँच भेद बताये गये हैं। जैन-शास्त्र में केवल शास्त्रों का अध्ययन करना ही स्वाध्याय नहीं, वरन् उस पर विचार करना, चिंतन करना भी स्वाध्याय है। स्वाध्याय के पाँच भेद हैं - (१) वाचना, (२) पृच्छना, (३) परिवर्तना, (४) अनुप्रेक्षा और (५) धर्मकथा। इनका विवेचन इस प्रकार किया गया (१) वाचना - सद्ग्रन्थों का वाचन करना और दूसरों को सिखाना। (२) पृच्छना - मन में शंका उत्पन्न होने पर गुरुजनों से पूछना और ज्ञान को बढ़ाना। पृच्छना का अर्थ है - जिज्ञासा और जिज्ञासा ही ज्ञान की कुरजी (३) परिवर्तना - जो ज्ञान प्राप्त किया है उसकी आवृत्ति करते रहना। इससे ज्ञान में स्थिरता आती है और ज्ञान दृढ़ बनता है। (४) धर्म-अनुप्रेक्षा - तत्त्व के अर्थ और रहस्य पर विस्तारपूर्वक और गहराई में जाकर चिन्तन करना। (५) धर्मकथा - धर्मोपदेश स्वयं सुनना और लोक-कल्याण की भावना से दूसरों को धर्म का उपदेश देना। इस प्रकार स्वाध्याय के पाँच भेद बताये गये हैं, और इनके भी अनेक उपभेद जैनशास्त्रों (भगवती, ठाणांग आदि) में कहे गये हैं। इनके आधार पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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