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जैन-दर्शन के नव तत्त्व खाना या उसके कुछ भाग को खाली रखना अवमौदर्य तप कहा जाता है। इसे अवमौदरिका' अथवा ऊनोदरिका” भी कहा जाता है।
संक्षेप में ऊनोदरी तप का तात्पर्य आहार के परिमाण में कमी करना अथवा अपेक्षित आहार से कम आहार ग्रहण करना है। कषाओं में कमी करना, ऊनोदरी तप का भावपक्ष है। यह एक प्रकार से अपनी क्षुधा पर नियन्त्रण करने का प्रयास है।
ऊनोदरी के प्रकार - आगम साहित्य में ऊनोदरी तप के एक अपेक्षा से दो प्रकार और अन्य अपेक्षा से पाँच प्रकार कहे गये हैं। ऊनोदरी तप के द्विविध वर्गीकरण में द्रव्य ऊनोदरी और भाव ऊनोदरी - ये दो प्रकार माने गये हैं। जबकि इस तप के पचविध वर्गीकरण में द्रव्य ऊनोदरी, क्षेत्र ऊनोदरी, काल ऊनोदरी, भाव ऊनोदरी एवं पर्याय ऊनोदरी - ये पाँच प्रकार बताये गये हैं।" यहाँ इनका संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत है। १. द्रव्य ऊनोदरी - द्रव्य शब्द वस्तु का सूचक है। आवश्यकता की अपेक्षा
आहार के परिमाण को कम करना अथवा वस्त्रादि के परिमाण को कम
करना, द्रव्य ऊनोदरी तप कहा जाता है। २. क्षेत्र ऊनोदरी - भिक्षाचर्या के लिये सीमित क्षेत्र का निर्धारण करके, उस क्षेत्र
में उपलब्ध भिक्षा से ही अपनी क्षुधा शान्त करना, क्षेत्र ऊनोदरी तप है। ३. काल ऊनोदरी - भिक्षाचर्या के लिये एक समय-मर्यादा निश्चित करके, उस
समय में उपलब्ध भिक्षा से ही अपनी क्षुधा को शान्त करना, काल ऊनोदरी
तप कहा जाता है। ४. भाव ऊनोदरी - भिक्षा ग्रहण करने के लिये विशिष्ट प्रकार के अभिग्रह
करना, भाव ऊनोदरी तप है। जैसे - पति-पत्नी युगल रूप से भिक्षा के लिये
निवेदन करेंगे, तो ही भिक्षा लूँगा आदि। ५. पर्याय ऊनोदरी - विशिष्ट प्रकार से आचरण करना, पर्याय ऊनोदरी तप है।
स्थानांगसूत्र में ऊनोदरी तप के तीन प्रकारों का उल्लेख हुआ है - (१) उपकरण ऊनोदरी, (२) भक्तपान ऊनोदरी तथा (३) भाव ऊनोदरी । १. उपकरण ऊनोदरी - संयमी जीवन के लिये जो अपेक्षित वस्त्र पात्रादि
उपकरण होते हैं, उनमें कमी करना उपकरण ऊनोदरी तप है। २. भक्तपान ऊनोदरी - भोजन-पानी आदि की मात्रा को सीमित एवं अल्प
करना, भक्तपान ऊनोदरी तप कहा जाता है। शरीर के लिये अपेक्षित आहार ग्रहण करना ही स्वास्थ्य का साधक होता है। मात्रा से अधिक आहार ग्रहण करना, रोग का कारण होता है और वह शारीरिक शक्ति को भी क्षीण करता है। इसलिए खान-पान की मर्यादाएँ स्वीकार करना ही ऊनोदरी तप का उद्देश्य है।
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