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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
३. भाव ऊनोदरी - भाव अर्थात् मनोवृत्ति। क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषाय
हमारी मनोवृत्ति के ही अंग हैं। इन कषायों को क्षीण करना या नष्ट करना, भाव ऊनोदरी तप है।६ भाव ऊनोदरी तप दाता और ग्रहीता की अपेक्षा से दो प्रकार का है।
३. वृत्तिपरिसंख्यान (भिक्षाचर्या) -
विविध वस्तुओं की लालसा को कम करना या भोगाकांक्षा पर अंकुश लगाना वृत्तिपरिसंख्यान तप कहा जाता है। वृत्ति का अर्थ भिक्षावृत्ति भी है। भिक्षावृत्ति के लिये विविध प्रकार की मर्यादाओं को स्वीकार करना वृत्तिपरिसंख्यान तप है। जैसे - दो या तीन घरों से ही भिक्षा ग्रहण करूँगा, अथवा एक या दो बार में पात्र में जो आहार आयेगा उसी से संतुष्ट रहँगा। यही वृत्तिपरिसंख्यान
जैन-परम्परा में भिक्षाचर्या को गोचरी या मधुकरी भी कहा जाता है। जैसे - गाय घास को ऊपर-ऊपर से ग्रहण करके अपनी क्षुधा तृप्त कर लेती है और जैसे भौंरा थोड़ा-थोड़ा ऊपर से रस ग्रहण करके क्षुधा शान्त कर लेता है। उसी प्रकार मुनि भी ग्रहस्थों के घर से थोड़ी-थोड़ी भिक्षा ग्रहण करके अपनी क्षुधा की निवृत्ति कर लेता है। वस्तुतः यह दृष्टिकोण न केवल जैन-परम्परा का है, अपितु बौद्ध तथा वैदिक दर्शन में भी भिक्षा-ग्रहण करने की यही विधि मानी गयी है। भिक्षावृत्ति को विविध प्रकार से मर्यादित करना ही वृत्तिसंक्षेप तप कहलाता है।
भिक्षाचर्या का शाब्दिक अर्थ याचना है। यहाँ यह शंका उत्पन्न हो सकती है कि याचना और तप का क्या संबंध है? क्या केवल याचना करने से ही कोई क्रिया तप हो सकती है? नहीं। याचना करने से तप नहीं होता। अपितु तप तभी होता है जब नियमपूर्वक शास्त्र के अनुसार वस्तु की याचना की जाती है। दीनता से भिखारी के समान भीख माँगना तप नहीं है, वह तो पाप है। उस तप को भिक्षाचरी तप नहीं कहा जाता। इस तप का अन्य नाम 'वृत्तिसंक्षेप' भी है।
आगम-साहित्य में कहीं-कहीं गोयरग्र ,गोचराग्र और गोयर शब्दों का भी प्रयोग किया गया है। जिसका अर्थ है, गाय के समान चरना या भिक्षाटन करना।२ गाय जिस प्रकार घास के अच्छी होने या बुरी होने का विचार न करके, एक जगह से दूसरी जगह चरते-चरते जाती है, वह किसी भी प्रकार की घास पर आसक्त न होते हुए केवल उतनी ही घास खाती है जितनी पेट के लिए आवश्यक है। इस पूरी प्रक्रिया में गाय घास खाती है, परन्तु पूरी घास एक साथ नहीं खाती,
और न मूल के साथ उसे उखाड़ती है। केवल थोड़ा-थोड़ा खाती हुई आगे बढ़ती है। जंगल की सारी हरियाली नष्ट नहीं करती। उसी प्रकार साधक भी सरस या रसहीन आहार का विचार न करते हुए भिक्षा के लिए जाता है। तात्पर्य यह है कि चाहे अमीर का घर हो या गरीब का, वह सभी घरों से भिक्षा ग्रहण करता
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