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________________ २५४ जैन-दर्शन के नव तत्त्व तप के अभ्यन्तर और बाह्य दोनों ही प्रकार वर्णित हैं। जिस तप में शारीरिक क्रिया प्रमुख होती है अथवा जो दूसरों को तप के रूप में दिखायी देता है, वह बाह्य तप कहलाता है। इसके विपरीत जो बाहर से तप के रूप में दिखायी नहीं देता और जिसमें मानसिक साधना ही प्रमुख होती है, वह अभ्यन्तर तप कहा जाता है। अग्रिम पृष्ठों में तप के उपर्युक्त बारह प्रकारों की चर्चा की जायेगी। १. अनशन . मर्यादित समय के लिये या आजीवन के लिये आहार का त्याग करना अनशन कहलाता है। इसे उपवास या अनशन के रूप में जाना जाता है। वैसे तो उपवास रोगनिवृत्ति के लिये भी किये जाते हैं, परन्तु जो उपवास आध्यात्मिक विशुद्धि के लिये किया जाता है, वही वास्तविक उपवास है। अनशन का उद्देश्य, संयम का रक्षण और कर्मों की निर्जरा दोनों ही हैं।' संक्षेप में संयम की साधना, देह के प्रति राग भाव का विनाश, ध्यान-साधना अथवा ज्ञानसाधना के लिये अनशन की आवश्यकता होती है। साथ ही इससे जिनशासन की प्रभावना भी होती है। अनशन के प्रकार - अनशन दो प्रकार के होते हैं - (क) इत्वरिक और (ख) यावज्जीवन । (क) इत्वरिक - एक निर्धारित समय के लिये जो अनशन किया जाता है, वह इत्वरिक अनशन कहलाता है। इसमें निर्धारित कालमर्यादा के समाप्त होने पर भोजन की आकांक्षा बनी रहती है। (ख) यावज्जीवन - जीवनभर के लिये भोजन का और भोजन की आकांक्षा का त्याग कर देना, यावज्जीवन अनशन कहलाता है। इत्वरिक अनशन के संक्षेप में छ: प्रकार बताये गये हैं - (१) श्रेणीतप, (२) प्रतरतप, (३) घनतप, (४) वर्गतप, (५) वर्गवर्गतप और (६) प्रकीर्णतप। विशिष्ट कालमर्यादा को लेकर जो इत्वरिक अनशन तप किये जाते हैं, वे मनुष्य की इच्छानुसार भिन्न-भिन्न प्रकार के फल देने की सामर्थ्य रखते हैं। शारीरिक स्थिति के आधार पर मृत्युपर्यन्त जो अनशन किया जाता है, वह दो प्रकार का है - (१) सविचार अर्थात् जिसमें शारीरिक गतिविधियाँ की जा सकती हैं। (२) अविचार" - जिसमें हलन-चलन आदि शारीरिक क्रियाएँ नहीं की जा सकती हैं। सभी तपों में अनशन तप को इसलिये प्रथम स्थान दिया जाता है कि यह तप अत्यधिक कठोर और दुर्धर होता है। अनशन तप के द्वारा क्षुधा पर विजय प्राप्त की जाती है। और संसार में क्षुधा पर विजय प्राप्त करना सर्वाधिक कठिन कार्य है। कहा जाता है कि भूखा व्यक्ति कौन-सा पाप नहीं करता है। इस क्षुधा पर नियन्त्रण करना ही अनशन तप की साधना है।। २. ऊनोदरी या अवमौदर्य - ऊनोदरी यह तप का दूसरा प्रकार है। 'ऊन' का अर्थ न्यून या कम होता है। उदर (पेट) की आवश्यकता से कम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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