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________________ २५१ जैन-दर्शन के नव तत्त्व निर्जरा तो जीवात्मा हर समय करता ही रहता है। किन्तु इससे मुक्ति प्राप्त नहीं होती। क्योंकि नये कर्मों के आगमन की परम्परा यथावत् चलती रहती है। सविपाक और अविपाक निर्जरा को निम्नांकित उदाहरण के द्वारा भी समझाया जा सकता है। जिस प्रकार वृक्ष पर लगे हुए फल उनकी काल-सीमा के पूर्ण होने पर स्वतः ही पककर गिर जाते हैं, उसी प्रकार सविपाक निर्जरा में कर्म अपना फल देकर नष्ट होते रहते हैं। किन्तु कर्मों के इस स्वाभाविक विपाक के समय जीव राग-द्वेष के वशीभूत होकर नवीन कर्मों का बन्ध करता रहता है। इस प्रकार कर्म-परम्परा चलती रहती है। किन्तु जिस प्रकार पेड़ पर लगे हुए फलों को समय-मर्यादा के पूर्व ही तोड़कर, गर्मी आदि देकर पका लिया जाता है, उसी प्रकार कर्मों के उदय में आने के पूर्व ही तपरूपी अग्नि से उन्हें नष्ट कर देना अविपाक निर्जरा है। सविपाक निर्जरा केवल उदयाधीन कर्मों की ही होती है, जबकि अविपाक निर्जरा उनकी भी होती है, जो कर्म अभी उदय के योग्य नहीं बने हैं। सविपाक निर्जरा संसारी जीव सदैव करता रहता है, किन्तु अविपाक निर्जरा तो सम्यक्दृष्टि-व्रतधारी जीव ही करने में समर्थ होते हैं। कर्ममल को आत्मा से अलग करना जीव का स्वभाव है किन्तु यह तब तक सम्भव नहीं होता, जब तक जीवात्मा अपने स्वरूप का बोध प्राप्त नहीं कर लेता। __नवीन कर्मों के आस्रव को रोकना और पूर्वबद्ध कर्मों को छ: प्रकार के बाह्य तथा छ: प्रकार के अभ्यन्तर तपों के द्वारा नष्ट करना - सम्यक्दृष्टि-जीव का प्रयत्न होता है। जब तक जीव मिथ्यात्व के वशीभूत होकर राग-द्वेष के द्वारा नये कर्मों का बन्ध करता रहता है, तब तक वह मुक्ति को प्राप्त नहीं होता। __ जो जीव सम्यक् दर्शन और सम्यक् ज्ञान से युक्त होकर सम्यक् चारित्र्य के द्वारा अपने विकारी भावों को आंशिक रूप से नष्ट करता है, उसके कर्मों की अविपाक निर्जरा होती है। अविपाक निर्जरा में कर्म, फल देने के पूर्व ही तप आदि के द्वारा नष्ट कर दिये जाते हैं। अपना फल देने के पूर्व तप आदि के द्वारा कर्मों को नष्ट कर देना, अविपाक निर्जरा है। और कर्मों का, अपने स्वाभाविक क्रम से समयमर्यादा पूर्ण होने पर फल देकर नष्ट हो जाना, सविपाक निर्जरा कहलाता है। ___कर्ममल को समाप्त करने के लिए मुनिजन दुष्कर तप करते हैं। रात्रि में श्मशान आदि भयानक स्थानों पर खड़े रहकर ध्यान करते हैं। भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी आदि अनेक प्रकार के परीषहों को सहन करते हैं। दूसरे प्राणियों के द्वारा दिये गये नानाविध कष्टों को सहते हैं। केशलोच आदि अनेक प्रकार के कष्टों को सहन करते हैं। अठारह प्रकार के संयमों का पालन करते हैं। सम्पूर्णरूप से ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। स्त्री-पुत्र, परिजन आदि के प्रति राग-द्वेष का त्याग करके सभी प्रकार के परिग्रह का त्याग करते हैं। यहाँ तक कि अपने शरीर पर भी ममत्व नहीं रखते हैं। उग्र तपस्या आदि के द्वारा वासनाओं Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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