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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
का दमन करते हैं। यह सब अविपाक एवं सकाम निर्जरा कहा जाता है क्योंकि इसमें इच्छापूर्वक कर्मों का क्षय करने का प्रयत्न किया जाता है।
सकाम निर्जरा प्रयत्नपूर्वक होती है और उसमें कर्मों को उसके फल देने के पूर्व ही उदय में लाकर नष्ट कर दिया जाता है। विवशता से जीवात्मा अनेक प्रकार के कष्टों को भोगता हुआ सविपाक या अकाम निर्जरा तो हर समय करता ही रहता है; किन्तु जब स्वेच्छा से कष्टों को सहन करके आत्मपुरुषार्थ के द्वारा पूर्वबद्ध कर्मों को नष्ट किया जाता है, तभी अविपाक निर्जरा या सकाम निर्जरा होती है। यही मुक्ति का मार्ग है।
निर्जरा के बारह प्रकार
संयोगों के कारण आत्मा में आये हुए अशुद्ध भाव या विकार भाव को नष्ट करने के लिये तथा आत्मा के शुद्ध स्वरूप को प्रकट करने के लिये तप-साधना आवश्यक है। जीवात्मा तपरूपी अग्नि में तपकर ही आत्मविशुद्धि कर सकता है। भोजन-पानी आदि का त्याग करना बाह्य तप है। किन्तु कषाय, कामना, इच्छा, आकांक्षा, ममत्व-बुद्धि और तृष्णा का त्याग करना ही वास्तविक तप है। सम्यक् तप का प्रयोजन आत्मविशुद्धि है। इसलिये मोक्ष-मार्ग की साधना में आत्मा में जो कर्मों का आगमन है, उसे समाप्त करने के लिए तप किया जाता है। यह तप ही निर्जरा है।
स्थानांगसूत्र में निर्जरा एक प्रकार की बतायी गयी है - 'एगा निज्जरा' । परन्तु अन्य स्थानों पर निर्जरा के बारह प्रकारों का भी उल्लेख हुआ है। जिस प्रकार अग्नि एक ही होती है, किन्तु तृण, काष्ट आदि निमित्त-भेदों के कारण वह काष्ठाग्नि, तणाग्नि आदि कही जाती है। उसी प्रकार कर्ममल को नष्ट करने रूप निर्जरा तो वस्तुतः एक ही प्रकार की है; किन्तु जिन-जिन साधनों से यह निर्जरा की जाती है, उन-उन साधनों के आधार पर उसके बारह भेद बताये गये हैं। निर्जरा के बारह प्रकार निम्नांकित हैं - १. अनशन - भोजन आदि का त्याग करना अनशन है। २. अवमौदर्य - आवश्यकता से कम खाना या आहार के परिमाण में कमी
करना। ३. वृत्तिपरिसंख्यान - भिक्षावृत्ति करते समय वस्तु तथा उसकी मात्रा आदि में
कमी करना। ४. रसपरित्याग - दूध, दही, घी-तेल, शक्कर, गुड़ आदि का त्याग करना। ५. विविक्तशय्यासन - एकान्त स्थान में रहना और अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण
करना। ६. कायक्लेश - शारीरिक कष्टों को सहन करना। जैसे - भूमि पर शयन करना ucati BTICI
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