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________________ सप्तम अध्याय निर्जरा तत्त्व [Exhaustion of Karma] तात्पर्य है पूर्वबद्ध झड़ना या कम होना । नव तत्त्वों में निर्जरा सातवाँ तत्त्व है । निर्जरा का कर्मों का अंशतः क्षय करना । निर्जरा शब्द का अर्थ है। नवीन कर्मों का आगमन रोक देना, संवर है और पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय करना, निर्जरा है । इस प्रकार संवर से नये कर्मों का आगमन रुककर तथा निर्जरा के द्वारा पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय होकर मोक्ष की प्राप्ति होती है। अतः पूर्व कर्मों का आंशिक क्षय होता ही निर्जरा कहा जाता है। जीव अनादि काल से कर्मों के वशीभूत होकर संसार में परिभ्रमण कर रहा है। कर्मों के बन्ध का हेतु आनव है। बँधे हुए कर्म उदय में आकर अर्थात् अपना फल देकर समाप्त हो जाते हैं । जीवात्मा के असंख्य प्रदेश होते हैं और इन प्रदेशों के द्वारा वह कमों का आस्रव और बन्ध करता है। जैसे-जैसे कर्मों का क्षयोपशम होता जाता है वैसे-वैसे जीवात्मा आवरण से रहित होकर उज्ज्वल होता जाता है। जीवात्मा का कर्मों के आवरण से रहित होकर उज्ज्वल होना ही निर्जरा है। जीव का आंशिक रूप से कर्ममल से रहित होकर उज्ज्वल होना ही भगवान् महावीर के शब्दों में निर्जरा है। और जब सम्पूर्ण कर्ममल साफ हो जाता है, तब मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। मोक्ष आत्मा का सर्वोच्च लक्ष्य है और सम्पूर्ण रूप से कर्मों का क्षय हो जाने की अवस्था है । निर्जरा का अर्थ जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, आत्मप्रदेशों से कर्ममल का आंशिक रूप से क्षय होना निर्जरा है 'एकदेशकर्मसंशयलक्षणा निर्जरा' (सर्वार्थसिद्धि, अध्याय १, सू. ४) । Jain Education International - - तत्त्वार्थवृत्ति में कहा गया है कि कर्मों का आंशिक रूप से क्षय होना और आत्मा का आंशिक रूप से विशुद्ध होना ही निर्जरा है। जैन दर्शन के अनुसार आनव के द्वारा कर्म आते हैं और राग-द्वेष के द्वारा बन्ध को प्राप्त होते हैं। जब तक जीवात्मा में राग-द्वेष के तत्त्व उपस्थित हैं, तब तक आनव और बन्ध की परम्परा चलती रहती है। यही संसार है । किन्तु जब आत्मा स्वरूप का परिज्ञान कर अपने स्वभाव में स्थित होता है अर्थात् राग-द्वेष से ऊपर उठता है अर्थात् वीतराग - अवस्था को प्राप्त करता है, तब नवीन कर्मों का आगमन अर्थात् आनव रुक जाता है। आस्रव का अभाव होने पर बन्ध भी नहीं होता है। आनव का रुक जाना ही संवर है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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