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________________ २२६ जैन-दर्शन के नव तत्त्व (४) सूक्ष्म संपराय चारित्र्य सूक्ष्म का अर्थ है - अत्यंत जघन्य और संपराय का अर्थ है - लोभकषाय। उसका उदयरूप जो चारित्र्य है, उसे 'संपराय चारित्र्य' कहते हैं। जिस चारित्र्य में सूक्ष्म संपराय लोभ-कषाय का अस्तित्त्व अति सूक्ष्म रूप में होता है परंतु क्रोधादि कषायों का अस्तित्त्व अल्प भी नहीं होता उसे सूक्ष्म संपराय चारित्र्य कहते हैं। इसके दो भेद हैं- (१) संक्लिश्यमान सूक्ष्म संपराय और (२) विशुद्धमान सूक्ष्म संपराय। (५) यथाख्यात चारित्र्य अरिहन्त भगवान् ने आगमों में चारित्र्य का जो स्वरूप बताया है, उसका उसी प्रकार से पालन करना यथाख्यात चारित्र्य है । इसके दो प्रकार हैं - (क) उपशान्त यथाख्यात चारित्र्य और (ख) क्षायिक यथाख्यात चारित्र्य । जब तक व्यक्ति के जीवन में क्रोध, मान, भाया तथा लोभ रूपी कषाय नष्ट नहीं होते, शुद्ध आत्मस्वरूप में स्थिरता नहीं होती और वीतराग भाव की प्राप्ति नहीं होती, तब तक उपशान्त यथाख्यात चारित्र्य होता है । किन्तु जब कषाय पूर्णतः नष्ट हो जाते हैं, आत्मस्वभाव में स्थिरता हो जाती है और वीतराग अवस्था की प्राप्ति हो जाती है, उस समय वह क्षायिक यथाख्यात चारित्र्य कहा जाता है । यथाख्यात चारित्र्य का मोक्षप्राप्ति में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है । यथाख्यात चारित्र्य की महिमा ऐसी है कि इसका पालन करने पर मोक्ष अवश्य ही प्राप्त होता है।६६ संवरतत्त्व के सत्तावन प्रकार'६७ चारित्र्य अनुप्रेक्षा (१२) परीषहजय (२२) गुप्ति समिति धर्म (३) (५) (१०) मनगुप्ति ईर्या उत्तमक्षमा वचनगुप्ति भाषा उत्तममार्दव कायगुप्ति एषणा उत्तमआर्जव आदान- उत्तमशौच निक्षेप उत्तमसत्य उत्सर्ग उत्तमसंयम उत्तमतप उत्तमत्याग E-EFFER अनित्य क्षुधा रोग सामायिक अशरण तृषा तृणस्पर्श छेदोपास्थापन संसार शीत मल परिहारविशुद्धि एकत्व उष्ण चर्या सूक्ष्मसम्पराय अन्यत्व दंशमशक निषद्या यथाख्यात दंशमशन अशुचित्व नाग्न्य शय्या आस्रव अरति सत्कार-पुरस्कार संवर स्त्री प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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