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उत्तम अकिंचन्य निर्जरा उत्तमब्रह्मचर्य
लोक
जैन दर्शन के नव तत्त्व
संवर का महत्त्व
जिस प्रकार नगर के द्वार पूरी तरह बन्द होने पर उस नगर में शत्रु का प्रवेश असम्भव होता है; उसी प्रकार इन्द्रिय, कषाय एवं योग का सम्यक् प्रकार से निरोध होने पर और गुप्ति, समिति, धर्मानुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र्य का पालन करने पर आत्मा में नवीन कर्मों का प्रवेश नहीं हो पाता है । इसी को संवर कहते
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आक्रोश अज्ञान अदर्शन
बौद्ध दर्शन में संवर
है
जैन- दर्शन के अनेक शब्द बौद्ध दर्शन में भी प्रचलित रहे हैं । इसका कारण यह है कि महावीर और बुद्ध दोनों ही समकालीन थे । यद्यपि दोनों दर्शनों में आम्रव और संवर शब्दों का प्रयोग हुआ है फिर भी इनके अर्थ के विषय में दोनों दर्शनों में मतभेद है । तथागत बुद्ध ने अंगुत्तरनिकाय में कहा है कि आनव का निरोध संवर है । संवर की यह परिभाषा दोनों परम्पराओं में समानरूप से मिलती 1 वैसे बौद्ध परम्परा में संवर का अर्थ 'इन्द्रियों को अपने विषयों की ओर स्वतन्त्र रूप से जाने से रोकना है। इससे आस्रव नहीं हो पाता है । अंगुत्तरनिकाय में इसके अतिरिक्त, संवर के अन्य अर्थ भी प्रचलित रहे हैं १. प्रतिसेवना संवर भोजन - पान, वस्त्र तथा चिकित्सा आदि के अभाव में मन प्रसन्न नहीं रहता है और कर्मबन्ध होता है । अतः इनके उपभोग को नियन्त्रित करना प्रतिसेवना संवर है ।
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वध
बोधिदुर्लभ याचना
धर्म
अलाभ
२. अधिवासना संवर जिसे अपनी विषय-वासनाओं को नियन्त्रित करने में और शारीरिक कष्टों को सहने में ही आनन्द आता है, ऐसा व्यक्ति शारीरिक सुखों को पसन्द नहीं करता और स्वेच्छा से कष्टों को सहन करता है । इससे उसके आस्रवों का निरोध होता है और संवर का परिपालन होता है । ३. परिवर्जन संवर
जिस प्रकार मदोन्मत्त हाथी अथवा अश्व आदि पशु तथा सर्प, बिच्छू सदैव कष्ट ही देते हैं, उसी प्रकार पापी मित्र आदि भी दुःखदायक होते हैं । अतः उनका परिवर्जन करना ही परिवर्जन संवर है ।
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४. विनोदन संवर - हिंसा-वितर्क, काम-वितर्क तथा पाप-वितर्क ये सभी बन्धन के कारण हैं । अतः इन बन्धनों का सेवन न करना ही विनोदन संवर है । ५. भावना संवर शुभ भावनाओं से आस्रव का निरोध होता है । अतः यथाशक्य प्रशस्त भावों में ही अपनी आत्मा को स्थापित करना चाहिए ।
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