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जैन- दर्शन के नच तत्त्व
समभाव में स्थिर रहने के लिए संपूर्ण अशुद्ध प्रवृत्तियों का त्याग और अठारह प्रकार के पापों का त्याग करना 'सामायिक चारित्र्य' है । इसमें पाँच महाव्रतों का ग्रहण किया जाता है। संपूर्ण जीवराशि को ज्ञानयुक्त जानना और उसमें समभाव रखना अर्थात् सब को सिद्ध के समान शुद्ध जानना तथा राग-द्वेष छोड़ देना 'सामायिक चारित्र्य' है ।"
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(२) छेदोपस्थापन चारित्र्य
छेद अर्थात् रद्द करना । कुछ दोषों के दण्डस्वरूप पूर्व में पालन की गई दीक्षा को रद्द करना । उपस्थापन अर्थात् पुनः महाव्रतों का उपस्थापन करना। यह 'छेदोपस्थापन चारित्र्य' है ।'
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यदि प्रमादवश चारित्र्य में दोष लगे हों तो प्रायश्चित्त आदि के द्वारा लगे हुए दोषों को दूर करके पुनः निर्दोष संयम धारण करना 'छेदोपस्थापन चारित्र्य' कहलाता है। इसके दो भेद हैं (१) सातिचार छेदोपस्थापन और ( २ ) निरतिचार
छेदोपस्थापन |
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सातिचार का अर्थ है दोषसहित और निरतिचार का अर्थ है दोषरहित १६२
प्रमाद से किए गए अनर्थ- प्रबंधों अर्थात् हिंसा आदि अव्रतों का त्याग करने पर जो सम्यक् प्रकार की प्रतिक्रिया होती है, अर्थात् व्रतों का पुनः ग्रहण होता है - उसे छेदोपस्थापन चारित्र्य कहते हैं । १६३
हिंसा आदि पाप - क्रियाओं का त्याग करना छेदोपस्थापन चारित्र्य है अथवा व्रत में बाधा आने पर पुनः उसकी शुद्धि करने को छेदोपस्थापन चारित्र्य कहते
हैं । १६४
(३) परिहार - विशुद्धि चारित्र्य
परिहार का अर्थ है- त्याग तथा विशुद्धि का अर्थ है- विशेष शुद्धि | मिथ्यात्व, राग आदि विकल्प-मलों का त्याग कर विशेष रूप से आत्मशुद्धि करना 'परिहार - विशुद्धि चारित्र्य' है । इसके दो भेद हैं (१) निर्विशमानक और (२) निर्विष्टकायिक |
जिस चारित्र्य में जीव हिंसा को निषिद्ध मानकर उसका पूर्णतः त्याग होता है और विशिष्ट विशुद्धि होती है - उसे 'परिहार - विशुद्धि चारित्र्य' कहते हैं । इसमें विशिष्ट प्रकार के आचारों का पालन किया जाता है। विशेष तपस्या से विशुद्धि होना इस चारित्र्य की विशेषता है ।
परिहार- विशुद्धि अत्यंत निर्मल चारित्र्य है । यह धीर और उच्चदर्शी साधुओं को प्राप्त होता है । 'प्राणि- वध की निवृत्ति' को परिहार कहते हैं । उसकी शुद्धि जिस चारित्र्य से होती है, वह परिहार- विशुद्धि चारित्र्य है ।"
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