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________________ २२४ जैन-दर्शन के नव तत्त्व २१. अज्ञान परीषह : किसी के द्वारा तिरस्कार किए जाने पर या 'तुम अज्ञानी और मूर्ख हो', ऐसा कहे जाने पर भी ज्ञानप्राप्ति में शिथिलता न आने देना। २२. अदर्शन परीषह : 'दीक्षा लेने के बाद अनेक वर्ष बीत गये फिर भी अभी तक मुझे ऋद्धि या सिद्धि कुछ भी प्राप्त नहीं हुई', ऐसी चिन्ता न होने देना। इस प्रकार बाईस परीषहों को शान्ति से सहन करने पर संवर होता है। किसी भी प्रकार की वेदना उत्पन्न होने पर, आत्म-स्वरूप का चिन्तन करते हुए, व्याकुल न होकर समस्त परीषहों को सहजता से सहन करना, 'परीषहजय' कहलाता है।५४ जो मुमुक्षु पूर्वबद्ध कर्म की निर्जरा करने के लिए आत्म-स्वरूप में स्थित होकर, क्षुधा आदि बाईस प्रकार की वेदनाओं को सहन करता है, उसे ही 'परीषह-विजयी' कहते हैं।५५ पाँच चारित्र्य संवर तत्त्व के सत्तावन भेदों में से तीन गुप्तियों, पाँच समितियों, दस धर्मों, बारह अनुप्रेक्षाओं तथा बाईस परीषह-जयों - के बाद पाँच चारित्र्यों का क्रम आता है। किसी के द्वारा जो शुद्ध आचरण किया जाता है, उसे चारित्र (चारित्र्य) कहते हैं। जिसके कारण हित होता है और अहित का निवारण होता है, उसे चारित्र कहते हैं। अथवा सज्जन जैसा आचरण करते हैं, उसे चारित्र्य कहते हैं। संसार की कारणभूत बाह्य तथा अंतरंग क्रियाओं से निवृत्त होना चारित्र्य है। साथ ही आत्म-स्वरूप में रम जाना भी चारित्र्य है।५६ चारित्र्य ही धर्म है।५७ आत्मिक दृष्टि से भी शुद्ध स्थिति में स्थिर रहना चारित्र्य है। आत्मा को समस्त सावध योगों से परावृत्त करने वाला तत्त्व चारित्र्य है। चारित्र्य का मोक्ष-मार्ग में तीसरा स्थान है। सामायिक, छेदोपस्थापन, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्म संपराय और यथाख्यात - चारित्र्य के ये पाँच भेद हैं।५६ ।। (१) सामायिक चारित्र्य सम अर्थात् ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र्य। आय अर्थात् लाभ। समाय से 'इक' तद्धित प्रत्यय लगने पर 'सामायिक' शब्द निष्पन्न होता है। सामायिक का अर्थ है - समस्त सावध व्यापारों का त्यागरूप सर्वविरति चारित्र्य। साधु को इसका आचरण करना चाहिए। इस चारित्र्य के दो भेद हैं - (१) इत्वर सामायिक चारित्र्य और (२) यावत्कायिक सामायिक चारित्र्य। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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