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जैन-दर्शन के नव तत्त्व द्वेष आदि वृत्तियाँ रुक जाती हैं। इसलिए ऐसे चिन्तन का संवर के उपायों में वर्णन किया गया है।२७
___ मोक्ष-मार्ग पर वैराग्य की वृद्धि के लिए बारह अनुप्रेक्षाओं का जैनागम में किया गया कथन प्रसिद्ध ही है। इन बारह अनुप्रेक्षाओं को बारह वैराग्य भावनाएँ भी कहते हैं।
कर्म-निर्जरा के लिए अस्थिमज्जानुगत अर्थात् पूर्ण रूप से हृदयंगम हुए श्रुतज्ञान का परिशीलन करना ‘अनुप्रेक्षा' है।
सुने हुए अर्थ का श्रुतानुसार चिन्तन करना ‘अनुप्रेक्षा' है।२८
शरीर आदि के स्वभाव का बार-बार चिन्तन करना, साथ ही जाने हुए अर्थ का मन में चिन्तन करना, ‘अनुप्रेक्षा' है।२६
__जिन विषयों का ज्ञान जीवन-शुद्धि के लिए विशेष उपयोगी है ऐसे बारह विषयों के चिन्तन को 'बारह अनुप्रेक्षा' की संज्ञा दी गयी है। बारह अनुप्रेक्षायें ये
(१) अनित्यानुप्रेक्षा (२) अशरणानुप्रेक्षा (३) संसारानुप्रेक्षा (४) एकत्वानुप्रेक्षा
(५) अन्यत्वानुप्रेक्षा (६) निर्जरानुप्रेक्षा (६) अशुचित्वानुप्रेक्षा (१०) लोकानुप्रेक्षा (७) आसवानुप्रेक्षा (११) बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा एवं (८) संवरानुप्रेक्षा (१२) धर्मस्वाख्याततत्त्वानुप्रेक्षा ।१३०
(१) अनित्यानुप्रेक्षा
किसी भी प्राप्त वस्तु के वियोग से दुःख न हो इसलिए आसक्ति को कम करना चाहिए। आसक्ति को कम करने के लिए 'संसार के समस्त पदार्थ - धन, यौवन, जीवन आदि - इन्द्रधनुष, बिजली या पानी के बुलबुले के समान क्षणभंगुर हैं', ऐसा चिन्तन करना ही अनित्यानुप्रेक्षा है। इस संसार के सभी पदार्थ अनित्य हैं। प्रातःकाल निसर्ग का जो स्वरूप दिखाई देता है, वह मध्यान्ह में नहीं दिखाई देता और मध्यान्ह के समय जो स्वरूप दिखाई देता है, वह रात में नहीं दिखाई देता।३१
शरीर, जीवन धारण करने वाले समस्त पुरुषार्थों की सिद्धि का आधार है। परंतु वह भी प्रचण्ड वायु से छिन्न-भिन्न किये गये बादलों के समान नश्वर
लक्ष्मी सागर की लहरों के समान चंचल है। प्रियजनों का संयोग स्वप्न के समान क्षणिक है और यौवन वायु द्वारा उड़ाये जाने वाले (कपास के) तंतुओं के समान अस्थिर है।
इस प्रकार से स्थिर चित्त से, प्रत्येक क्षण, तृष्णारूपी काले भुजंग का नाश करने वाले निर्ममत्व भाव को जाग्रत करने के लिए, संसार में दिखाई देने वाले अनित्य स्वरूप का चिन्तन करना चाहिए।३२
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