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(२) अशरणानुप्रेक्षा
जिस प्रकार निर्जन वन में भूखे सिंह द्वारा पकड़े गए मृगशावक का कोई त्राता नहीं होता, उसी प्रकार इस संसार में अन्ततः व्यक्ति का कोई भी रक्षण करने वाला नहीं होता । 'स्वयं द्वारा पालित पोषित स्वयं का शरीर भी दुःख का कारण बन जाता है। पास के रिश्तेदार भी मृत्यु से हमारा रक्षण नहीं कर सकते । अगर सद्भावनापूर्वक धर्म का पालन किया जाये तो वही संकट से हमें बचा सकता है' इस प्रकार का चिन्तन 'अशरणानुप्रेक्षा' है ।'
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जैन दर्शन के नव तत्त्व
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(३) संसारानुप्रेक्षा
यह संसार हर्ष-विषाद, सुख-दुःख जैसे द्वन्द्वों का उपवन है । ऐसे संसार के स्वरूप का चिन्तन करना 'संसारानुप्रेक्षा' है । ३४
जीव चार गतियों में दुःख भोगता रहता है और पाँच प्रकार से परिभ्रमण करता है, परन्तु कभी शान्ति प्राप्त नहीं कर सकता। यह संसार साररहित ( दुःखरूप ) है। इसमें थोड़ा सा भी सुख प्राप्त नहीं हो सकता ।'
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भव भवान्तर में भ्रमण करने वाला यह जीव कर्म के बंध के कारण, किराये की झोंपड़ी की तरह, किस योनि में प्रवेश नहीं करता और किस योनि का त्याग नहीं करता। वह संसार की सब योनियों में जन्म लेता है और मरता है । १३६
(४) एकत्वानुप्रेक्षा
संसार में जन्म, व्याधि, जरा, मृत्यु आदि स्वयं को ही भोगने पड़ते हैं, इसमें कोई रिश्तेदार भागीदार नहीं होता - इस प्रकार का चिन्तन 'एकत्वानुप्रेक्षा'
है ।
जीव अकेला ही उत्पन्न होता है और अकेला ही मरता है भव-भवान्तर में संचित कर्म को अकेला ही भोगता रहता है। एक जीव द्वारा पापाचरण से जो सम्पत्ति प्राप्त की जाती है, उसे सारे रिश्तेदार मिलकर भोगते हैं। परंतु वह पापाचारी अपने पाप कर्मों के परिणामस्वरूप नरक में अकेला ही दुःख भोगता है | १३७
'वाल्या' नामक लुटेरे की पत्नी और बच्चों ने उसके पापकर्म में हिस्सेदार होने से इन्कार कर दिया था, यह सर्वश्रुत ही है। इससे 'एकत्वानुप्रेक्षा' की कल्पना अधिक स्पष्ट होती है ।
(५) अन्यत्वानुप्रेक्षा
शरीर से आत्मा अलग है, ऐसा चिन्तन करना 'अन्यत्वानुप्रेक्षा' है । शरीर रूपी है और आत्मा अरूपी है । शरीर जड़ है और आत्मा चेतन है । शरीर अनित्य है और आत्मा नित्य है । शरीर नये जन्म के साथ नहीं रहता
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