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जैन-दर्शन के नव तत्त्व दोष आदि का नाश करने के लिए ज्ञान आदि सद्गुणों का अभ्यास करना, गुरु की अधीनता में रहना तथा ब्रह्म (गुरुकुल) में चर्य निवास करना ब्रह्मचर्य है।१६
व्रत-पालन के लिए, ज्ञान की सिद्धि या वृद्धि के लिए अथवा कषाय नष्ट करने के लिए गुरु के सान्निध्य में रहने को ब्रह्मचर्य कहते हैं।
प्रश्नव्याकरणसूत्र में ब्रह्मचर्य की उपमा भगवान् से दी गई है२०- 'तं बंभं भगवंतम्।'
ब्रह्मचर्य की महिमा अत्यधिक है। जो ब्रह्मचर्य का पालन नहीं करता, उसकी आयु, तेज, बल, वीर्य, बुद्धि, शोभा, लक्ष्मी, यश और पुण्य नष्ट हो जाते हैं। वह परमात्मा को प्रिय नहीं रहता।२१
केवल एक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने से समस्त व्रत-नियमों का पालन हो जाता है।२२
कुछ लोग ब्रह्मचर्य का अर्थ मात्र जननेन्द्रिय पर संयम रखना समझते हैं परंतु महावीर और महात्मा गांधी के मतानुसार सभी इन्द्रियों और सम्पूर्ण विकारों पर अधिकार प्राप्त करना ही असली ब्रह्मचर्य है।२३।
ब्रह्मचर्य सब व्रतों का मुकुटमणि है। वह सब धर्मों का मूल है। प्राचीन शास्त्रों में 'ब्रह्म' शब्द के मुख्य तीन अर्थ बताए गये हैं- वीर्य, आत्मा और विद्या। 'चर्य' शब्द के भी तीन अर्थ हैं - रक्षण, रमण और अध्ययन। इस दृष्टि से ब्रह्मचर्य के ये तीन अर्थ होते हैं - (१) वीर्यरक्षण, (२) आत्मरक्षण और (३) विद्याध्ययन।
वीर्यरक्षण का अर्थ तो प्रसिद्ध ही है। शेष दो अर्थ विचारणीय हैं। आत्म-स्वरूप में लीन होना और हमेशा ज्ञानार्जन करते रहना भी ब्रह्मचर्य की साधना है। इसलिए ब्रह्मचर्य, विकारों का उपशमन और आत्मरक्षण करना है।२४
__ आचार्य पतंजलि ने योगदर्शन में कहा है कि जब साधक में ब्रह्मचर्य की पूर्णतः दृढ़स्थिति होती है, तब उसके मन, बुद्धि, इन्द्रियों और शरीर में एक अपूर्व शक्ति का प्रादुर्भाव होता है। सामान्य मनुष्य उसकी बराबरी नहीं कर सकता।
काम-विकार का चिन्तन और स्मरण करने से ही मनुष्य उस विषय-विकार की ओर आकृष्ट होता है अर्थात आसक्त होता है।२६
बारह अनुप्रेक्षाएँ
___ संवर तत्त्व के सत्तावन (५७) भेदों में से तीन गुप्तियों, पाँच समितियों तथा दस धर्मों के विवेचन के बाद बारह अनुप्रेक्षाओं का क्रम है।
__ अनुप्रेक्षा (अनु+प्र+ईक्ष्) का अर्थ है - भावना अर्थात् बार-बार चिन्तन करना तथा गहराई में जाकर विचार करना। गहरे और तात्त्विक चिन्तन से राग,
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