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________________ जैन दर्शन के नव तत्त्व कर्मों का क्षय करने के लिए अनशन आदि करना तपोधर्म है। मनुष्य तप के द्वारा विश्व को जीत सकता है। तप की महिमा अनेक उपनिषदों, बौद्ध ग्रंथों, वैदिक ग्रंथों तथा जैन ग्रंथों में बतायी गयी है । तप रूपी तेजस्वी शक्ति के द्वारा मनुष्य संसार में विजयश्री और समृद्धि प्राप्त कर सकता है। 999 ( ८ ) त्याग : चेतन और अचेतन को छोड़ना 'त्याग - धर्म' है । सुपात्र को दान आदि देना परिग्रह- त्याग है। रोगी को दवाई देना, शक्ति के अनुसार भूखे को अन्न देना, प्रणिमात्र को अभय देना, तथा समाज के उद्धार (कल्याण) के लिए तन-धन आदि का त्याग करना भी त्याग है । ११२ २१६ निर्ममत्व को त्याग कहा गया है। धर्म की बुनियाद ( नींव ) त्याग है। त्याग के बिना सुख नहीं है । १३ '' (६) अकिंचन्य : शरीर और धर्मोपकरण (पात्र, रजोहरण आदि) के लिए भी ममत्व के भाव नहीं होने चाहिए। इसे 'अकिंचन्य धर्म' कहते हैं । .११४ सर्वार्थसिद्धि में पूज्यपादाचार्यजी ने कहा है 'अभिप्राय का त्याग करना अकिंचन्य है।' नास्ति मे किचन मेरा कुछ भी नहीं है ऐसी भावना 'अकिंचन्य' है I संपूर्ण परिग्रह का त्याग करना अकिंचन्य की निवृत्ति के लिए 'मम इदम्' यह मेरा है 'अकिंचन्य' है ।' ११५ - - धर्म है । शरीर आदि में मोह इस प्रकार की भावना रखना (१०) ब्रह्मचर्य : अध्यात्म मार्ग में ब्रह्मचर्य का सर्वप्रथम स्थान है, क्योंकि ब्रह्म में रम जाना ही वास्तविक ब्रह्मचर्य है । यह ब्रह्मचर्य अणुव्रत और महाव्रत दोनों रूपों में स्वीकारा जाता है । ब्रह्मचर्य का पालन मानव जीवन के लिए श्रेयस्कर है। Jain Education International जीव ब्रह्म है। आत्मध्यान में जो मुनि रम जाता है, वही ब्रह्मचर्य का आचरण करता है। .११६ 'ब्रह्म' शब्द का अर्थ निर्मल ज्ञानस्वरूप आत्मा है । ऐसी आत्मा में लीन होना ब्रह्मचर्य है । जिस मुनि का मन अपने शरीर के लिए भी निर्ममत्वरूप है, वही ब्रह्मचर्य धर्म का पालन कर सकता है । ७ ब्रह्म वेदाः तदध्ययनार्थं व्रतं अपि ब्रह्म । तत् चरतीति ब्रह्मचारी । ब्रह्मचारिणः भावः ब्रह्मचर्यम् । ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले को हिंसा आदि दोष नहीं लगते । नित्य गुरुकुलवास के कारण गुणसम्पदा अपने आप मिलती है । स्त्री - विलास, विभ्रम आदि के अधीन हुआ प्राणी पाप का शिकार बनता है । संसार में अजितेन्द्रियता बड़ा अपमान करती है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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