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जैन दर्शन के नव तत्त्व
अर्थात् सत्यवचन सुनने और बोलने से अधिक आनंद देने वाला कुछ भी नहीं है। १०६
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जिस प्रकार शरीर में प्राणों का मूल्य सर्वाधिक है । उसी प्रकार समस्त सद्गुणों में सत्य सबसे अधिक मूल्यवान है। सत्य के अभाव में मनुष्य की अवस्था प्राणशून्य शरीर के समान होती है । आत्मा को सच्चिदानंद कहा जाता है, परन्तु आत्मा का आनन्द तो सत्य ही है और संपूर्ण समाज ही सत्य पर आधारित है (६) संयम : मन, वचन और काया के कर्म को 'योग' कहते हैं इस योग के निग्रह को संयम कहते हैं। मन वचन और काया के अधीन न होना अपितु उन्हें अपने अधीन रखना 'संयम- धर्म' है । हिंसा आदि अवद्य कर्मों या इन्द्रियों के विषयों से मन, वचन और काया को उपरत ( उदासीन) रखना ही संयम धर्म है उमास्वतिजी ने संयम के सत्रह प्रकार बताये हैं ।
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संयम का अर्थ है- सम्यक् प्रकार से, यमों (नियमों) का पालन करना । जो मनुष्य सम्यक् प्रकार से यमों का पालन करता है, उसे यम का भी भय नहीं
रहता ।
जैसा कि विश्वसंत महासती श्री उज्ज्वल कुमारीजी ने अपने प्रवचन में कहा है यमाः संयमिताः येन यमः तस्य करोति किम् ?
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अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह- ये पाँच व्रत बताये गये हैं। इन पाँच व्रतों को जैन आगम में 'पंच महाव्रत' कहा गया है। बौद्ध धर्म में इन्हें 'पंचशील' कहा गया है। वैदिक धर्म में इन्हें 'पंच यम' कहा गया है। इंन्द्रिय-विजय और प्राणि-रक्षा करना भी 'संयम' ही है ।
सम्यक् प्रकार से नियमों का पालन करना, अर्थात् व्रत समिति, गुप्ति आदि रूपों से आचरण करना या विशुद्ध आत्म ध्यान में मग्न रहना ही संयम है। संयम का अर्थ है- आत्म-नियंत्रण और आत्मनियंत्रण ही जीवन है। 1 जीवन की कला जानने के लिए मन एकाग्र करके 'संयम : एक चिन्तन' विषय का अभ्यास करना चाहिए ।"
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(७) तप : 'इच्छानिरोधः तपः' अर्थात् इच्छा का निरोध करना 'तप' है। मन की आशा और तृष्णा को रोकना 'तप' है। मलिन प्रवृत्ति का निर्मूलन करने के लिए तथा बल की प्राप्ति के लिए जो आत्मदमन किया जाता है, उसे तप कहते हैं I तप बारह प्रकार के हैं। उनका विस्तृत वर्णन 'निर्जरा' तत्त्व में किया जायेगा । १०
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