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जैन दर्शन के नव तत्त्व
शुचिकर्म होता है । अर्थात् भावों की विशुद्धि, कल्मषता का अभाव और धर्म की साधना में भी आसक्ति न होना शौच धर्म है। लोभरूप मलिनता के अभाव को ही शौच-धर्म कहते हैं ।'
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शौच-धर्म आत्म-परिणाम की मलिनता दूर करने से होता है । शारीरिक मलिनता का अभाव गौण है । सन्तोष में ही सुख है- संतोषः परमं सुखम् । धर्म की साधना के विषय में और शरीर में भी आसक्ति न रखने, जैसी निर्लोभता को शौच कहते हैं। दुर्भावनाओं से दूर रहना और लोभ आदि का त्याग करना ही शौच है । दूसरे शब्दों में आत्यन्तिक लोभ की निवृत्ति को शौच कहते हैं । (५) सत्य : सत् - प्रशस्त पदार्थ को प्रवृत्त करने वाले और सज्जनों के लिए हितकारक वचन को सत्य कहते हैं ।
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जो अनृत अर्थात् मिथ्या नहीं है; परुषता, रूक्षता तथा कठोरता से रहित है; दोषरूप भी नहीं है; असभ्यता का द्योतक नहीं है; चपलतारहित है तथा मलिनता और कलुषता का सूचक नहीं है - वही सत्य है । १०३
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सत्य से बढ़कर दूसरा कोई भी धर्म श्रेष्ठ नहीं है- सत्यान्नास्ति परो धर्मः । सत्य को स्वर्ग का सोपान भी कहा गया है- 'सत्यं स्वर्गस्य सोपनम्' | प्रश्नव्याकरणसूत्र में कहा गया है- 'सच्चं खु भगवं' अर्थात् सत्य ही परमेश्वर है । प्रश्नव्याकरणसूत्र में यह भी कहा गया है कि सत्य जगत् में सारभूत है वह महासमुद्र से भी अधिक गंभीर है। मेरु पर्वत से भी अधिक स्थिर है चन्द्रमण्डल से भी अधिक सौम्य है तथा सूर्यमण्डल से भी अधिक तेजस्वी है T हित, मित और यथार्थ वचनों का उपयोग करना सत्य नामक यतिधर्म है । और अनृत, परुषता, कुटिलता, आदि से रहित वचन ही उत्तम सत्य हैं । १०५ सत्य की उपासना करने वाले के केवल विचार और उच्चार ही सत्य नहीं होते, उनका आचार भी सत्य तथा सम्यक् होता है। इमर्सन ने कहा है "The greatest homage we pay to truth is to use it." अर्थात् सत्य को अपने जीवन में उतारना (सत्याचरण करना) ही सत्य का सर्वोच्च सम्मान है । ठाणांगसूत्र के चौथे ठाणे में चार प्रकार के सत्य बताये गये हैं'चउव्विहे सच्चे पण्णत्ते तं जहा- काउज्जुयया, मासुज्जुयया, भावज्जुयया अविसंवायणाजोगे ।' अर्थात् काया की ऋजुता भाषा की ऋजुता भावनाओं की ऋजुता और इन तीनों योगों की अविसंवादिता - ये सत्य के चार भेद हैं ।
सत्य मानव हृदय में रहने वाली ईश्वर की मूर्ति ही है। जिसे सत्य ज्ञात हो गया उसे ईश्वर के सारे आशीर्वाद प्राप्त हो गये ऐसा समझना चाहिए। सत्य के बिना मनुष्य अंधा है। सत्य ही मानव का हृदय - चक्षु
है
सॉक्रेटिस के शिष्य प्लेटो ने कहा है
"There is nothing so delightful as the hearing or the
speaking of the truth."
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