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जैन-दर्शन के नव तत्त्व भी वस्तु को किसी भी समय छीन लेने की या प्राप्त करने की इच्छा मन में न आने दो।६
हिन्दुओं के दस धर्म
मनुस्मृति में हिन्दुओं के निम्नतिखित दस धर्म बताये गये हैं। - (१) धैर्य रखना, (२) सहनशील रहना, (३) मन को वश में रखना, (३) किसी के द्वारा दिए बिना उसकी वस्तु को हाथ न लगना, (५) किसी भी वस्तु या व्यक्ति का ज्यादा लोभ न करना, (६) शरीर की इन्द्रियों को वश में रखना, (७) अपने बुद्धि-चातुर्य का उपयोग करना, (८) अपने ज्ञान की वृद्धि करना, (E) हमेशा सत्य बोलना और (१०) क्रोध न करना।
जैनों के दस धर्म
जैन-धर्म में दस प्रकार के धर्म बताए गए हैं। वे हैं - (१) क्षमा, (२) मार्दव, (३) आर्जव, (४) शौच, (५) सत्य, (६) संयम, (७) तप, (८) त्याग, (E) अकिंचन और (१०) ब्रह्मचर्य। इनके अर्थ इस प्रकार बताये गये हैं -
१. क्षमा : किसी भी परिस्थिति में मन में क्रोध का भाव उत्पन न होने देना
(अर्थात् मन में क्रोध न आने देना)। २. मार्दव : उच्च जाति, कुल, शक्ति,वैभव, अमीरी, शैक्षणिक पात्रता आदि का
कभी अभिमान न करना। ३. आर्जव : हेतुपूर्वक छल, कपट, विश्वासघात, धोखा आदि न करना। ४. शौच : दूसरे के धन-दौलत की इच्छा न करना तथा लोभ, लालच, वासना
आदि के अधीन न होना।। ५. सत्य : झूठ न बोलना। प्रत्येक के साथ उसके हित की बातें करना, उससे
सत्य तथा अच्छी लगने वाली बातें करना। ६. संयम : मन और इन्द्रियों को वश में रखना। ७. तप : अपनी इच्छाओं तथा आवश्कयताओं को न बढ़ने देना। अध्ययन और
धर्माध्ययन में स्वयं को लगाना। ८. त्याग : अपने पास जो कुछ है उसका अपनी शक्ति के अनुसार दीन-दुखियों,
गरीबों, असहायों तथा निराश्रितों को उपयोग करने देना। ६. अकिंचन : संपत्ति इकट्ठा करके न रखना, क्योंकि वही सब पापों का मूल
१०- ब्रह्मचर्य : सब स्त्री-पुरुषों को माता, बहिन तथा भाई के समान समझना।।
बौद्ध, ईसाई, जैन और हिन्दुओं ने धर्म के दस भेद ही क्यों माने हैं,यह ऐतिहासिक चर्चा का विषय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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