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________________ जैन दर्शन के नव तत्त्व इन दस धर्मों का विस्तृत वर्णन इस प्रकार किया गया है (१) क्षमा : क्षमा, तितिक्षा, सहिष्णुता और क्रोध - निग्रह समानार्थक शब्द हैं। क्षमा होगी तभी धर्म रहेगा । इसलिए कहा गया है- क्षमायां स्थाप्यते धर्मः । अर्थात् धर्म का निवासस्थान क्षमा है । ७६ दूसरों के घर भिक्षा के लिए जाते समय भिक्षु को, दुष्ट लोगों द्वारा गालियाँ, हँसी-मजाक, अवज्ञा, ताडना ( फटकारना), शरीर छेदन आदि क्रोध के असह्य निमित्त मिलने पर भी, स्वयं का मन कलुषित न होने देना ही उत्तम क्षमा है। २११ क्षमा के बारे में हुक्म मुनि ने 'अध्यात्मप्रकरण' में लिखा है कि समभाव से गाली सहन करने वाले को छियासाठ करोड़ उपवासों का फल मिलता है । " क्रोध-उत्पादक परिस्थति में भी मन को कलुषित होने से, क्षमा के द्वारा बचाया जाता है। कारण के होने पर भी मन को कलुषित न होने देना क्षमा है । क्रोध के कारण के होने पर भी क्रोध उत्पन्न न होने देना ही उत्तम क्षमा-धर्म है मनुष्य दूसरे पर सत्ता स्थापित करने के लिए क्रोध की शरण लेता है I परन्तु उस बेचारे को यह मालूम नहीं होता कि सत्ता क्रोध के प्रताप से प्राप्त नहीं होती, वह स्वयं के पूर्वजन्म के पुण्य से ही प्राप्त होती है । क्रोध के कारण आत्मा में क्रूरता उत्पन्न होती है । यह क्रूरता मनुष्य से, हिंसक जानवर को भी लज्जित करने वाला कार्य करवा लेती है। उत्तम क्षमा आदि में एक संवररूपी धर्मभाव दिखाई देता है। 5 क्षमा के लिए कुरगडूक मुनि का उदाहरण सर्वश्रेष्ठ है। पागल कुत्ता मुनष्य को केवल एक ही बार कष्ट देता है। एक ही बार मृत्यु देता है, परन्तु क्रोध, लाभ आदि का विष मनुष्य को जीवन भर कष्ट देता है । इतना ही नहीं, अनेक बार जन्म-मरण भी करवाता है । ६ कुरल काव्य में श्रीएलाचार्य जी ने क्षमा के संबंध में कहा है- उपवास करके तपश्चर्या करने वाले सचमुच महान् हैं। परन्तु उनका स्थान उन लोगों के बाद ही है, जो अपनी निन्दा करने वालों को भी क्षमा कर देते है। क्षमा के विषय में विद्वानों के विचार : क्षमा धर्म है, क्षमा यज्ञ है, क्षमा वेद है और क्षमा शास्त्र है । जो इस बात को समझता है, वह सभी को क्षमा करने योग्य हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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