SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 233
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०६ जैन-दर्शन के नव तत्त्व हित-अहित का विचार करके उपर्युक्त निर्दोष भाषा बोलना ही श्रेयस्कर जो भाषा भले ही सत्य हो किन्तु फिर भी यदि उससे अनेक जीवों की हत्या होती हो तो ऐसी भाषा नहीं बोलनी चाहिए। जिसे बोलने से कर्मबंध होता है, ऐसी भाषा भी कभी नहीं बोलनी चाहिए। हमेशा मधुर, असंदिग्ध, सत्य, कल्याणकारी, हानि-लाभ का पूर्ण विचार करके बोलना चाहिए। इसे ही 'भाषा समिति' कहा गया है। भाषा सत्य और प्रिय होनी चाहिए, इस संबंध में सर्वत्र एकमत दिखाई देता है। मनुस्मृति में भी यही कहा गया है 'सत्य बोलना चाहिए, प्रिय बोलना चाहिए, जो सत्य होकर भी अप्रिय हो ऐसा वचन नहीं बोलना चाहिए। दूसरे को खुशी हो इसलिए झूठ भाषण नहीं करना चाहिए- यह सनातन धर्म है। दूसरा यदि अपशब्द का प्रयोग करे तो भी हमें उसे मर्मभेदक शब्दों से नहीं दुखाना चाहिए। किसी का भी द्रोह करने की बुद्धि नहीं रखनी चाहिए। परलोक के लिए रुकावट पैदा करने वाली, उद्वेगजनक वाणी को कभी मुख से नहीं निकालना चाहिए। पैशुन्य, व्यर्थ हँसना, कठोर वचन, परनिन्दा, स्वयं की प्रशंसा और विकथा आदि वचनों को छोड़कर स्व-पर-हितकारी वचन बोलना 'भाषा समिति' साधु को अपनी भाषा से - क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, भय, वाचालता (निंदा आदि) तथा अनावश्यक कथन इत्यादि को ध्यानपूर्वक टालना चाहिए। क्योंकि उनसे भाषा दूषित होती है।६० अनिंद्य, सत्य बोलना, सब लोगों के लिए हितकर और परिमित भाषण करना (मर्यादित बोलना) एवं सबको प्रिय हो ऐसी भाषा बोलना 'भाषा समिति' भाषा समिति की व्याख्याएँ शब्द-भेद से भले ही अलग-अलग लगती हैं, परंतु भावार्थ सब का एक ही है। (३) एषणा समिति : जीवन के लिए आवश्यक निर्दोष साधनों को इकट्ठा करने के लिए सावधानी पूर्वक प्रवृत्ति करना और विधिपूर्वक निर्दोष आहार लेना ‘एषणा समिति' है। अन्न, पान, वस्त्र, रजोहरण आदि धर्म के साधनों को धारण करने वाले साधु को, उनको धारण करने से जो उद्गम, उत्पादन और एषणा दोष लगते हैं, उनका त्याग करना ‘एषणा समिति' कहलाता है।६२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy