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________________ २०७ जैन-दर्शन के नव तत्त्व प्रतिदिन भिक्षा के बयालीस दोषों को त्यागकर मुनि जो निर्दोष अन्न तथा पानी ग्रहण करते हैं, उसे 'एषणा समिति' कहते हैं।६३ (४) आदान-निक्षेप समिति : सब वस्तुओं को अच्छी तरह से देखकर और रजोहरण से प्रमार्जन करके (जीव-जन्तु देखकर) लेने और रखने की इस प्रवृत्ति को आदान-निक्षेप समिति कहते हैं। __इस समिति के अनुसार आचरण करने वाले मुनियों को ओघ-उपाधि (सामान्य उपकरण) और औपग्रहीत उपाधि (विशेष उपकरण) - दोनों प्रकार के उपकरणों को लेने और रखने का ध्यान रखना चाहिए। 'आदान' का अर्थ है लेना और 'निक्षेप' का अर्थ है रखना। इस समिति के पालन से कर्म की निर्जरा और पुण्य की प्राप्ति होती है। क्योंकि इसमें कोई भी प्रमाद और किसी भी जीव की हिंसा होने की संभावना नहीं है।६४ ।। आसन, रजोहरण, पात्र, पुस्तक आदि संयम के उपकरणों का, सम्यक् प्रकार से निरीक्षण कर, उनका प्रमार्जन कर (जीव-जन्तु देखकर), विवेकपूर्वक ग्रहण करना और रखना आदान-निक्षेप समिति है।५५ उपर्युक्त व्याख्याएँ शब्द-भेद के कारण अलग-अलग दिखाई देती हैं, परन्तु उनका भावार्थ एक ही है। (५) उत्सर्ग (प्रतिष्ठापन) समिति : एकान्त स्थान, अचित्त स्थान, दूर किसी जगह छेदरहित चौड़ा तथा जहाँ कोई निन्दा और विरोध न करे- ऐसे स्थान पर मूत्र, विष्टा आदि देह का मलक्षेपण करना प्रतिष्ठापना (उत्सर्ग) समिति है। जहाँ छोटे-बड़े किसी भी जीव को बाधा नहीं पहुँचे ऐसी शुद्ध और जन्तुरहित भूमि पर कफ, मल-मूत्र आदि निरुपयोगी वस्तुएँ डालना 'उत्सर्ग समिति' कहलाता है।६६ उपर्युक्त पाँच समितियों का अर्थ संक्षेप में इस प्रकार है- अच्छी तरह से गमनागमन करना; उत्तम, हित-मित वचन बोलना; योग्य आहार ग्रहण करना; पदार्थों का यत्नपूर्वक ग्रहण-विसर्जन करना तथा भूमि देखकर त्याज्य वस्तुओं का त्याग करना- इन पाँच समितियों का साधु को बारीकी से आचरण करना चाहिए। इस प्रकार उक्त पाँच समितियों द्वारा जीव, स्थान आदि विधि को जानने वाले मुनि को, प्राणिमात्र को होने वाली पीड़ा को दूर करने के उपाय जानने चाहिए।६७ अहिंसा व्रत के रक्षण के लिए पाँच समितियों का पालन करना अत्यंत आवश्यक है।६८ जैसे स्नेह-गुण से युक्त कमलपत्र पानी से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार समिति से युक्त मुनि पाप से लिप्त नहीं होता।६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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