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________________ २०५ जैन-दर्शन के नव तत्त्व को कष्ट (पीड़ा) न हो इस प्रकार की सावधानीपूर्वक जो प्रवृत्ति है उसे 'समिति' कहते हैं। दूसरे शब्दों में किसी भी प्राणी को कष्ट न पहुँचे - ऐसी यत्नपूर्वक प्रवृत्ति को ‘समिति' कहा जाता है अथवा निश्चय से स्व-स्वरूप में सम्यक् प्रकार से गमन अर्थात् परिणमन 'समिति' है। निश्चयनय की अपेक्षा से अनंत ज्ञान आदि स्वभाव से यूक्त अपनी आत्मा में 'सम' होना - उत्तम प्रकार से अर्थात् समस्त राग आदि भावों के त्याग द्वारा आत्मा में लीन होना, आत्मा का चिन्तन करना, उसमें तन्मय होना आदि रूप जो अयन (गमन) अर्थात् परिणमन है, वह समिति है।" गमन आदि कार्यों में जैसी प्रवृत्ति आगम में कही गई है, वैसी प्रवृत्ति करना समिति है।५२ समिति के निम्नलिखित पाँच प्रकार हैं : - (१) ईर्या समिति, (२) भाषा समिति, (३) एषणा समिति, (४) आदान-निक्षेप समिति और (५) उत्सर्ग समिति। ये समितियाँ विवेकयुक्त प्रवृत्तिरूप होने से संवर का कारण बनती हैं।५३ इनका विवेचन इस प्रकार किया गया है - (१) ईर्या समिति : विवेकपूर्वक गमन करने तथा दूसरे जीव को किसी भी प्रकार की पीड़ा न हो इसलिए नीचे देखकर चलने को 'ईर्या समिति' कहा जाता है। जिसमें लोगों का आवागमन होता है और जिस पर सूर्य की किरणें पडती हैं, उस मार्ग पर जीवों की रक्षा के लिए, नीचे अच्छी तरह भूमि को देखकर चलना ईर्या समिति कहलाता है।" __ जिस प्रकार जैन-धर्म में जीव की रक्षा का उपदेश दिया गया है, उसी प्रकार हिंदू-धर्म में भी ठीक वैसा ही उपदेश दिया गया है। इस संबंध में मनुस्मृति में कहा गया है- हमें चलते समय चींटियों आदि क्षुद्र प्राणियों को पीड़ा न हो इसलिए दिन में या रात में किसी भी समय जमीन की ओर दृष्टि रखकर चलना चाहिए।" (२) भाषा समिति : सत्य, हितकारी, सन्देहरहित (स्पष्ट), नपा-तुला और निरवद्य (निर्दोष) बोलने को या वचन की प्रवृत्ति को 'भाषा समिति' कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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