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________________ २०२ जैन-दर्शन के नव तत्त्व २. विरति संवर : यह प्रमाद आम्नव का प्रतिपक्षी है। प्रमाद न करना अप्रमाद संवर है। ३. अप्रमाद संवर : यह प्रमाद आनव का प्रतिपक्षी है। प्रमाद न करना अप्रमाद संवर है। ४. अकषाय संवर : यह कषाय आम्नव का प्रतिपक्षी है। कषाय (क्रोध, मान, माया तथा लोभ) न करना अकषाय संवर है। कषायों के कारण आत्मा मलिन होता है। कषाय नष्ट करना अकषाय संवर है। ५. अयोग संवर : यह योग आस्रव का प्रतिपक्षी है। मन, वचन और काया के योग का निरोध होना 'अयोग संवर' है। ६. प्राणातिपात : यह प्राणातिपात आसव का प्रतिपक्षी है। हिंसा न करना ही प्राणातिपात-विरमण संवर है। क्योंकि सभी जीव जीवित रहना चाहते हैं। किसी को भी मरण अच्छा नहीं लगता। हरबर्ट वारेन ;भ्मतइमतज ततमदद्ध ने अंपदपेउ नामक ग्रंथ में कहा है कि जीवन दुःख और सुख से भरा हुआ होने पर भी, सब को प्रिय होता है।३६ ७. मृषावाद-विरमण : यह मृषावाद आस्रव का प्रतिपक्षी है। असत्य (झूठ) न बोलना ही मृषावाद-विरमण संवर है। ८. अदत्तादान-विरमण : यह अदत्तादान आस्रव का प्रतिपक्षी है। चोरी न करना अदत्तादान-विरमण संवर है। ६. मैथुन-विरमण : यह मैथुन आम्नव के विपरीत है। मैथुन-सेवन का त्याग करना मिथुन-विरमण संवर है। १०. परिग्रह-विरमण : यह परिग्रह आस्रव का उल्टा है। परिग्रह और ममता-भाव का त्याग ही परिग्रह-विरमण संवर है। ११. श्रोत्रेन्द्रिय संवर : यह श्रोत्रेन्द्रिय आस्रव का प्रतिपक्षी है। स्तुति और निन्दा-युक्त शब्दों में राग-द्वेष न करना ही श्रोत्रेन्द्रिय संवर है। १२. चक्षुरिन्द्रिय संवर : यह चक्षुरिन्द्रिय आस्रव के विपरीत है। अच्छे या बुरे रूप से राग-द्वेष न करना चक्षुरिन्द्रिय संवर है। १३. घाणेन्द्रिय संवर : यह घ्राणेन्द्रिय आस्रव का प्रतिपक्षी है। सुगन्ध और दुर्गन्ध से राग-द्वेष न करना घ्राणेन्द्रिय संवर है। १४. रसनेन्द्रिय संवर : यह रसनेन्द्रिय आस्रव का प्रतिपक्षी है। सुस्वाद (मधुर स्वाद) या बुरे स्वाद के लिए राग-द्वेष न करना रसनेन्द्रिय संवर है। १५. स्पर्शेन्द्रिय संवर : यह स्पर्शेन्द्रिय आनव का विरोधी है। स्पर्श के बारे में राग-द्वेष न करना ही स्पर्शेन्द्रिय संवर है। १६. मन संवर : यह वचनयोग आम्नव का प्रतिपक्षी है। अच्छे-बुरे मनोयोग का सम्पूर्ण विरोध ही मन संवर है। १७. वचन संवर : यह वचनयोग आस्रव का विरोधी है। शुभ और अशुभ - इन दोनों प्रकार के वचनों का संपूर्ण निरोध ही वचन संवर है। www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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