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जैन-दर्शन के नव तत्त्व योग शुभ और अशुभ दो प्रकार के हो सकते हैं। जब योग के साथ कषाय का संबंध होता है, तब वे अशुभ होते हैं। लेकिन मूलतः योग शुभ ही होते
योग पर विजय प्राप्त करने के उपाय हैं - दोषों का निग्रह करना तथा उन्हें दूर करना। यही अयोग संवर है।"
जो जीव शुक्लध्यानरूप अग्नि द्वारा घाती कर्मों को नष्ट करके योगरहित होता है, उसे अयोगी या अयोगकेवली कहते हैं।३२
उपर्युक्त पाँच संवर-भेदों का सारांश इस प्रकार है - (१) सम्यक्त्व : विपरीत मान्यता से मुक्त होना अर्थात् मिथ्यात्व का अभाव होना। (२) विरति : अठारह प्रकार के पापों का सर्वथा त्याग करना। (३) अप्रमाद : धर्म के विषय में पूर्ण उत्साह होना।। (४) अकषाय३ : जीव के समस्त कषायों - क्रोध, मान और लोभ आदि का नष्ट
होना।
(५) अयोग : मन, वचन और काया की दुष्प्रवृत्तियों को रोकना।
संवर के इन भेदों पर बार-बार चिन्तन करना और उनका आचरण करना ही कर्म-मुक्ति का सच्चा मार्ग है।
संवर के बीस भेद२५ आसव के बीस भेदों के समान ही संवर के भी बीस भेद हैं। जो निम्नलिखित हैं:
(१) सम्यक्त्व संवर (११) श्रोत्रेन्द्रिय संवर (२) विरति संवर (१२) चक्षुरिन्द्रिय संवर (३) अप्रमाद संवर (१३) घ्राणेन्द्रिय संवर (४) अकषाय संवर (१४) रसनेन्द्रिय संवर (५) अयोग संवर (१५) स्पर्शेन्द्रिय संवर (६) प्राणातिपात-विरमण संवर(१६) मनः संवर (७) मृषावाद-विरमण संवर (१७) वचन संवर (८) अदत्तादान-विरमण संवर (१८) काय संवर (E) मैथुन-विरमण संवर (१६) भाण्डोपकरण संवर (१०) परिग्रह-विरमण संवर (२०) सूची-कुशाग्र संवर
संवर के बीस भेदों का स्पष्टीकरण :१. सम्यक्त्व संवर : यह मिथ्यात्व आस्रव का प्रतिपक्षी है। नव तत्त्वों पर यथार्थ
श्रद्धा सम्यक्त्व संवर है।
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