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जैन दर्शन के नव तत्त्व
१८. काय संवर : यह काय-योग आनव का प्रतिपक्षी है
और
| शुभ अशुभ दोनों प्रकार के कार्यों का सम्पूर्ण निरोध करना ही काय संवर है । १८. भाण्डोपकरण: यह भाण्डोपकरण आस्रव का विरोधी है । वस्त्र, पात्र आदि लेते समय और रखते समय, किसी भी प्रकार के जीव की हिंसा न हो, ऐसी सावधानी रखना ही भाण्डोपकरण संवर है
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२०. सूची - कुशाग्र : यह सूची - कुशाग्र आस्रव का प्रतिपक्षी है । सुई आदि साधन लेते समय और रखते समय जीव की हिंसा न हो ऐसी सावधानी रखना सूची - कुशाग्र संवर है । ३७
संवर के सत्तावन भेद :
संवर के पाँच जघन्य भेद हैं, बीस मध्यम भेद हैं और सत्तावन उत्कृष्ट भेद हैं। पाँच और बीस भेदों का विवेचन हो चुका है। अब सत्तावन भेदों के बारे में विचार किया जायेगा ।
संवर की सिद्धि गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषह - जय और चारित्र्य से होती है।
तीन गुप्ति, पाँच समिति, दस धर्म, बारह अनुप्रेक्षा, बाईस परीषह और पाँच चारित्र्य - इस प्रकार से संवर के सत्तावन भेद होते हैं ।
तीन गुप्ति :
संवर, निरोध और निवृत्ति गुप्ति के पर्यायवाची शब्द हैं
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गुप्ति की व्याख्याएँ :
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आचार्य उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र में गुप्ति की व्याख्या इस प्रकार की गई
" संसार की अभिलाषा से परावृत्त होकर मन, वचन और काया की स्वैर प्रवृत्ति को रोकना गुप्ति कहलाता है । अशुभ से निवृत्ति ही गुप्ति है । ३
आचार्य उमास्वाती ने स्वोपज्ञभाष्य में गुप्ति की, “जिसके योग से मनोयोग, वचनयोग और काययोग का संरक्षण होता है, उसे गुप्ति कहते हैं" यह व्याख्या की है।
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संसार के कारणों से आत्मा का सम्यक् प्रकार से संरक्षण करना 'गुप्ति' कहलाता है।
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मन, वचन और काया की अशुभ प्रवृत्तियों को रोकना और शुभ प्रवृत्ति की ओर जाना 'गुप्ति' कहलाता है।
अशुभ योग का निग्रह 'गुप्ति' है । मन, वचन और काया को उन्मार्ग से रोकना और सन्मार्ग पर लाना 'गुप्ति' है । "
गुप्तियाँ तीन हैं - (१) मन - गुप्ति, (२) वचन - गुप्ति और (३) काय गुप्ति ।
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