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________________ १९८ जैन-दर्शन के नव तत्त्व सागर में बह जाने वाले और अपने कर्मों द्वारा कष्ट भोगने वाले जीवों के लिए सम्यग्दर्शन द्वीप के समान विश्राम-स्थान है। सम्यग्दृष्टि जीव को ही सुलभ-बोधि प्राप्त होती है। जिस प्रकार शरीर में समस्त अवयव हों पर मस्तक न हो, तो उसमें थोड़ा सा भी सौंदर्य नहीं होगा । यही बात सम्यक्त्व के बारे में भी लागू होती है। मस्तक-विहीन शरीर को 'धड़' कहते हैं और मस्तक होने पर पूर्ण शरीर कहा जाता है। सब प्रकार के व्रत, तप, ज्ञान आदि होने पर भी अगर सम्यक्त्व नहीं हो, तो उनका कुछ भी महत्त्व नहीं है। वह सब हाथी के स्नान के समान निरर्थक एक (१) अंक के बिना शून्यों का कुछ भी अर्थ या कीमत नहीं है। नेत्र के बिना सूर्यप्रकाश और सुवृष्टि के बिना खेत निरर्थक है, उसी प्रकार सुदृष्टि ही सम्यक्त्व है। सम्यग्दर्शन के बिना तप तथा जप की कुछ भी कीमत या महत्त्व नहीं है। जो सम्यग्दर्शन से युक्त है, उसी का तप, जप और इन्द्रियसंयम सार्थक है। उसी का ज्ञान सत्य है। सम्यग्दर्शन ही मिथ्यात्व का उच्छेद करने वाला है, इसलिए मुमुक्षु को सम्यग्दर्शन की आराधना करनी चाहिए। सम्यक्त्व के भेद : मिथ्यात्व-मोहनीय कर्मों का अवरोध क्रमशः उपशम, क्षयोपशम और क्षयरूप से होता है। इसीलिए सम्यक्त्व के भी क्रमशः औपशमिक सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व और क्षायिक सम्यक्त्व - ये तीन भेद होते हैं।२७ (१) औपशमिक सम्यक्त्व (अनन्तानुबंधी) : क्रोध, मान, माया और लोभ अर्थात् अनन्तानुबंधी चतुष्क और दर्शन मोह की तीन प्रकृतियों - मिथ्यात्व, सम्यक्-मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति-कुल सात प्रकृतियों का उपशम होने पर आत्मा की जो तत्त्वरुचि होती है उसे औपशमिक-सम्यक्त्व कहते हैं। (२) क्षायोपशमिक सम्यक्त्व : अनन्तानुबंधी कषाय और उदयप्राप्त मिथ्यात्व का क्षय तथा अनुदय प्राप्त मिथ्यात्व का उपशम करते समय जीव की जो तत्त्वरुचि होती है, उसे क्षायोपशमिक-सम्यक्त्व कहते हैं। (३) क्षायिक सम्यक्त्व : सम्यक्त्वघाती, अनन्तानुबंधी चतुष्क और दर्शनमोहत्रिक - इन सात प्रकृतियों के क्षय से होने वाली जीव की तत्त्वरुचियाँ क्षायिक सम्यक्त्व हैं। सम्यक्त्व के ऊपर के भेद जीव की अपेक्षा से हैं। सम्यक्त्व की अपेक्षा से नहीं हैं। तत्त्वश्रद्धा ही सम्यक्त्व का सही लक्षण है। सम्यक्त्व की प्राप्ति से ही आत्म-कल्याण का मार्ग सुलभ होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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