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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
आत्म-सरोवर खाली नहीं हो सकता। इस प्रकार आग्नवरूपी झरनों को बंद करना ही संवर है।"
संवर के पाँच भेद संवर आरनवों का निरोधक है। आग्नवों के जिस प्रकार मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग - ये पाँच भेद हैं, उसी प्रकार प्रतिपक्षी संवर के भी सम्यक्त्व, विरति, अप्रमाद, अकषाय और अयोग - ये पाँच भेद हैं।२२ इनका स्वरूप इस प्रकार बताया गया है -
(१) सम्यक्त्व :
यह मिथ्यात्व आस्रव का प्रतिपक्षी है। मिथ्यात्व कर्म आनव-द्वार है तो सम्यक्त्व कर्मों को रोकने वाला है। कर्म-बन्ध का मुख्य कारण मिथ्यात्व है। जब तक जीव को "मैं कौन हूँ? मेरा कर्तव्य क्या है?" इसका ज्ञान नहीं होता, तब तक उसे स्वस्वरूप का यथार्थ ज्ञान नहीं हो सकता । मिथ्यात्व जीव को स्वरूप-दर्शन नहीं होने देता। मिथ्यात्व के कारण जीव को संसार में परिभ्रमण करना पड़ता है। परंतु जब जीव को अपने स्वरूप का बोध होता है अर्थात् सम्यक्त्व प्राप्त होता है, तब जीव संसार से विरक्त होने लगता है।
सम्यक्त्व का लक्षण :
जीव, अजीव आदि तत्त्वों को यथार्थ (जैसा है वैसा) समझना और वैसी ही श्रद्धा रखना सम्यक्त्व कहलाता है।
सम्यक्त्व नैसर्गिक रीति से या परोपदेश से प्राप्त होता है। सम्यक्त्व पहचानने के लक्षण ये हैं - (१) शम - क्रोध आदि कषायों का उपशम या क्षय होना। (२) संवेग - मोक्ष-प्राप्ति की इच्छा रखना। (३) निर्वेद - संसार से उदासीन रहना। (४) अनुकम्पा - जीवमात्र पर दया करना तथा उन्हें पीड़ा न होने देना।
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सम्यक्त्व का महत्त्व :
___ सम्यक्त्व मोक्ष-प्राप्ति का प्रमुख कारण है। सम्यक्त्व के बिना चारित्र्य नहीं हो सकता परंतु सम्यक्त्व चारित्र्य के बिना हो सकता है। अर्थात् चारित्र्य से पहले सम्यक्त्व प्राप्त होना अत्यन्त आवश्यक है।
सम्यक्त्व के बिना ज्ञान भी नहीं हो सकता और ज्ञान के बिना चारित्र्य प्राप्त नहीं होता। चारित्र्य गुण के बिना मोक्ष नहीं मिल सकता। मोक्ष के बिना निर्वाण (अनन्त चिदानन्द पद) प्राप्त नहीं हो सकता। इतना ही नहीं संसाररूपी
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