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________________ १९६ जैन-दर्शन के नव तत्त्व जो संवरयुक्त है, वह मोक्ष के अमोघ साधन से युक्त है। वह अत्यंत गुणवान है। सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र्य को रत्नत्रय कहा गया है। संवर सम्यक् चारित्र है, इसलिए यह उत्तम गुणरत्न है। मोक्ष के दो साधक तत्त्व हैं - (१) संवर और (२) निर्जरा। जितने आस्रव हैं उतने ही संवर भी हैं। आस्रव के पाँच भेद हैं, इसलिए संवर के भी पाँच भेद हैं - संवर के भेद संवर के दो भेद हैं - (१) द्रव्यसंवर और (२) भावसंवर। सब प्रकार के आनवों का निरोध संवर है। संवर के द्रव्य-संवर और भाव-संवर दो भेद हैं। इनमें से कर्मपुद्गल के ग्रहण का छेदन या निरोध करना द्रव्य-संवर है। और संसार-वृद्धि की कारणभूत क्रियाओं का त्याग करना तथा आत्मा का शुद्धोपयोग करना अर्थात् समिति, गुप्ति आदि भाव-संवर हैं। आत्मा का परिणाम है कर्मानव, उसे रोकने में जो कारणभूत होता है, उसे भाव-संवर कहते हैं। और जो द्रव्य-आस्रव को रोकने में कारणभूत होता है, वह द्रव्य-संवर है। ____ पाँच व्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति, दस धर्म, बारह अनुप्रेक्षा, बाईस परीषहजय और पाँच चारित्र- इन्हें जानना भावसंवर है। आम्रव-रहित सहज स्वभाव होने से सब कर्मों को रोकने में कारण जो शुद्ध परमात्म-तत्त्व है, उसके स्वभाव से उत्पन्न जो शुद्धचेतन परिणाम है, वह भाव-संवर है। और भाव-संवर के कारण से उत्पन्न जो कार्यरूप (नवीन द्रव्य कर्मों के आगमन का) अभाव है, वह द्रव्यसंवर है। ___एक उदाहरण द्वारा प्रस्तुत विषय का स्वरूप अधिक स्पष्ट किया जा सकता है। कल्पना कीजिए कि एक मनुष्य किसी तालाब को खाली करने के लिए उसमें से पानी निकालकर बाहर फेंक रहा है। वह रात-दिन बड़ा परिश्रम कर रहा है। वह एक तरफ से पानी निकाल कर बाहर फेंक रहा है, और दूसरी तरफ से पानी तालाब में प्रवेश कर रहा है। इस प्रकार रात-दिन परिश्रम करने से जितना तालाब खाली होता है, उतना ही या उससे भी अधिक पानी तालाब में भरता ही जाता है। ऐसी परिस्थिति में कितने भी प्रयत्न किये जायें, परिश्रम किया जाय, तो भी तालाब खाली होने की संभावना नहीं है। जब झरनों को बंद करके पानी को बाहर फेंका जाएगा, तभी तालाब खाली हो सकेगा। संवर इस उदाहरण से अच्छी तरह स्पष्ट हो जाता है। आत्मा तालाब के समान है। उसमें कर्म रूपी पानी भरा हुआ है। आस्रव रूपी झरनों से उसमें रात-दिन कर्मरूपी पानी प्रवेश करता ही रहता है। साधक तप आदि साधनों द्वारा कर्म रूपी पानी को बाहर फैंकने का प्रयत्न करता है, परंतु जब तक कर्मों के आगमन का दरवाजा हम बंद नहीं करते, तब तक कर्म-जल से भरा हुआ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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