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________________ १९५ जैन- दर्शन के नव तत्त्व में मिथ्यात्व आदि रूप छिद्र है, वह सास्रव आत्मा है और जिसमें मिथ्यात्व आदि रूप छिद्र नहीं हैं, वह संवृत आत्मा है । सानव आत्मा मानने से संवृत आत्मा अपने आप ही सिद्ध हो जाता है । संवर के संबंध में कुछ उदाहरण : ( १ ) तालाब के झरनों को निरुद्ध करने के समान जीव के आनव का निरोध करना संवर है 1 (२) घर का दरवाजा बंद करने के समान जीव के आसव का निरोध करना संवर है । (३) नौका के छिद्र को निरुद्ध करने की तरह जीव के आस्रव का निरोध करना संवर है ।" १५ संवर आत्म-निग्रह से होता है : आस्रव का निरोध किया जा सकता है। संवर, निर्जरा और मोक्ष के निरोध का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। समस्त आस्रव द्वारों का निरोध करना ही संवर है । " १६ I जो कार्य निरोध करने योग्य है, वह आस्रव है। पाप प्रवृत्ति का निरोध करना संवर है। आत्म-निग्रह से आत्मा को वश में करने से संवर होता है। आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरि कहते हैं कि जिन उपायों से जो आनव रुकता है, उस आसव के निरोध के लिए उन्हीं उपायों का उपयोग करना चाहिए। जैसे क्षमा से क्रोध को जीतना चाहिए, मृदु-भाव से अभिमान पर विजय प्राप्त करनी चाहिए, ऋजुता ( सरलता) से माया ( कपट) पर विजय प्राप्त करें और निःस्पृहता से लोभ का निरोध करें । असंयम से उत्पन्न हुए विषैले भोगों को अखण्ड संयम से नष्ट करें। मनयोग, वचन योग और काययोग को मनगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति से जीत लेना चाहिए। अप्रमाद से प्रमाद को दूर करें। सावद्य योग ( पापमय योग ) के त्याग से विरति-संवर प्राप्त करें । सम्यग्दर्शन से मिथ्यात्व नष्ट करें और आर्त तथा रौद्र ध्यान को मन की शुभ स्थिरता से दूर करें । " १७ गुणरत्न है : मोक्ष-मार्ग के लिए संवर उत्तम पहले संसार और बाद में मोक्ष ऐसा क्रम है। पहले मोक्ष और बाद में संसार - ऐसा क्रम नहीं है। मोक्ष साध्य है, संसार त्याज्य है। इस संसार के मुख्य हेतु आस्रव और बंध हैं और मोक्ष के प्रमुख हेतु संवर और निर्जरा हैं ।" संवर से आस्रव का अर्थात् नये कर्मों के आगमन का निरोध होता है । निर्जरा से पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय होता है। इस प्रकार से दोनों मोक्ष-र - साधना के अनिवार्य साधन हैं। For Private & Personal Use Only Jain Education International - - www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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