SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 226
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९९ सम्यक्त्व के पाँच अतिचार ( दोष ) : शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टि-प्रशंसा और अन्यदृष्टि-संस्तव ये पाँच सम्यग्दर्शन के अतिचार हैं। 1 व्रत-नियमों का अंशतः पालन होना और अंशतः भंग होना 'अतिचार' कहलाता है । सम्यग्दर्शन के पाँच अतिचारों का स्वरूप इस प्रकार है - (१) शंका अरिहन्त भगवंत के कहे हुए सूक्ष्म और अतीन्द्रिय तत्त्वों में, यह सही है या नहीं, ऐसा संदेह (संशय) होना 'शंका' है । ( २ ) कांक्षा - जैन दर्शन के नव तत्त्व धर्म का फल आत्मशुद्धि है । परंतु धर्म-साधना में ऐहिक और पारलौकिक भोग-उपभोगों की आकांक्षा रखना 'कांक्षा' है । (३) विचिकित्सा सन्तों के मलिन शरीर और वस्त्रों को देखकर घृणा करना ही 'विचिकित्सा' है। (४) अन्यदृष्टि- संस्तव 'अन्यदृष्टि - संस्तव' है। मिथ्यादृष्टि जीवों की वचनों द्वारा स्तुति करना (५) अन्यदृष्टि-प्रशंसा - मिथ्यादृष्टि जीवों के ज्ञान, तप आदि के बारे में 'ये अच्छे हैं' ऐसी भावना रखना 'अन्यदृष्टि - प्रशंसा' है । दोषरहित और गुणसहित सम्यग्दर्शन से जो युक्त हैं, वे संसार में रहते हुए भी जल - कमलवत् निर्लिप्त हैं । सम्यग्दर्शन उत्पन्न होने पर संसार का अंत निश्चित है । अथ च मिथ्यात्व का रुक जाना ही मोक्ष है । - (२) विरति : कर्म के आगमन का जो दूसरा कारण है, वह है हिंसा आदि पाप कर्मों में मग्न होना । उन पाप कर्मों से विरत होना अर्थात् उनका त्याग करना विरति - व्रत है । पाप के त्याग से कर्म का आगमन रुकता है, इसलिए विरति को संवर भी कहते हैं । जीवन में व्रतों का महत्त्व श्वास- उच्छ्वास के समान है। जिस प्रकार श्वासोच्छ्वास से जीवित प्राणी पहचाना जाता है, उसी प्रकार व्रत से सम्यक्त्व की पहचान होती है । सम्यग्दृष्टि पाप-कार्य नहीं करता । 'सम्मत्तदंसणं न करेइ पावं' ( आचारांगसूत्र - ३/२) । व्रत से पाप कर्म की निवृत्ति होती है और पाप-कार्य की निवृत्ति से नये कर्मों के आस्रव रोके जाते हैं। आस्रव का रुकना ही कर्मरूपी रोग की दवा है । विना व्रतं कर्मरूपास्रवस्तथा' ( भावनाशतक - ६० ) । कर्मास्रवरूपी रोग को नष्ट करने के लिए व्रतरूपी औषधि का उपयोग करना आवश्यक है । व्रत के पाँच भेद हैं (१) प्राणातिपात विरमण, (२) मृषावाद - विरमण, (३) अदत्तादान - विरमण, (४) मैथुन - विरमण तथा ( ५ ) परिग्रह - विरमण । इन व्रतों का पालन साधु करते हैं। गृहस्थ को बारह अणुव्रतों का पालन करना पड़ता है। मुक्ति का उपाय व्रत - प्रत्याख्यान करना है । यही विरति-संवर है । २६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy