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सम्यक्त्व के पाँच अतिचार ( दोष ) :
शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टि-प्रशंसा और अन्यदृष्टि-संस्तव ये पाँच सम्यग्दर्शन के अतिचार हैं।
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व्रत-नियमों का अंशतः पालन होना और अंशतः भंग होना 'अतिचार' कहलाता है । सम्यग्दर्शन के पाँच अतिचारों का स्वरूप इस प्रकार है - (१) शंका
अरिहन्त भगवंत के कहे हुए सूक्ष्म और अतीन्द्रिय तत्त्वों में, यह सही है या नहीं, ऐसा संदेह (संशय) होना 'शंका' है ।
( २ ) कांक्षा
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जैन दर्शन के नव तत्त्व
धर्म का फल आत्मशुद्धि है । परंतु धर्म-साधना में ऐहिक और पारलौकिक भोग-उपभोगों की आकांक्षा रखना 'कांक्षा' है ।
(३) विचिकित्सा सन्तों के मलिन शरीर और वस्त्रों को देखकर घृणा करना ही
'विचिकित्सा' है।
(४) अन्यदृष्टि- संस्तव 'अन्यदृष्टि - संस्तव' है।
मिथ्यादृष्टि जीवों की वचनों द्वारा स्तुति करना
(५) अन्यदृष्टि-प्रशंसा - मिथ्यादृष्टि जीवों के ज्ञान, तप आदि के बारे में 'ये अच्छे हैं' ऐसी भावना रखना 'अन्यदृष्टि - प्रशंसा' है ।
दोषरहित और गुणसहित सम्यग्दर्शन से जो युक्त हैं, वे संसार में रहते हुए भी जल - कमलवत् निर्लिप्त हैं । सम्यग्दर्शन उत्पन्न होने पर संसार का अंत निश्चित है । अथ च मिथ्यात्व का रुक जाना ही मोक्ष है ।
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(२) विरति : कर्म के आगमन का जो दूसरा कारण है, वह है हिंसा आदि पाप कर्मों में मग्न होना । उन पाप कर्मों से विरत होना अर्थात् उनका त्याग करना विरति - व्रत है । पाप के त्याग से कर्म का आगमन रुकता है, इसलिए विरति को संवर भी कहते हैं ।
जीवन में व्रतों का महत्त्व श्वास- उच्छ्वास के समान है। जिस प्रकार श्वासोच्छ्वास से जीवित प्राणी पहचाना जाता है, उसी प्रकार व्रत से सम्यक्त्व की पहचान होती है । सम्यग्दृष्टि पाप-कार्य नहीं करता ।
'सम्मत्तदंसणं न करेइ पावं' ( आचारांगसूत्र - ३/२) ।
व्रत से पाप कर्म की निवृत्ति होती है और पाप-कार्य की निवृत्ति से नये कर्मों के आस्रव रोके जाते हैं। आस्रव का रुकना ही कर्मरूपी रोग की दवा है । विना व्रतं कर्मरूपास्रवस्तथा' ( भावनाशतक - ६० ) ।
कर्मास्रवरूपी रोग को नष्ट करने के लिए व्रतरूपी औषधि का उपयोग करना आवश्यक है ।
व्रत के पाँच भेद हैं (१) प्राणातिपात विरमण, (२) मृषावाद - विरमण, (३) अदत्तादान - विरमण, (४) मैथुन - विरमण तथा ( ५ ) परिग्रह - विरमण । इन व्रतों का पालन साधु करते हैं। गृहस्थ को बारह अणुव्रतों का पालन करना पड़ता है। मुक्ति का उपाय व्रत - प्रत्याख्यान करना है । यही विरति-संवर है ।
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