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________________ जैन दर्शन के नव तत्त्व १८३ प्रकार मन, वचन तथा काया की क्रियाओं को भी नहीं रोक सकता। इसलिए कर्म - पुद्गलों को आने से रोकना ही साधक की सिद्धि है । जिस जीव ने आस्रव का निरोध कर अपने आत्म-स्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर लिया है, उसे आध्यात्मिक दृष्टि से 'तत्त्वज्ञानी' कहा गया है। जो मिथ्यात्व के कारणों से रहित बनकर तथा ममत्वरहित होकर वीतरागता के मार्ग का अनुसरण करता है, वही आसव से मुक्त हो सकता है । यदि मानव को आस्रवतत्त्व का यथार्थ ज्ञान हो जाये अर्थात् कर्म कैसे आते हैं, कर्मों का बंध कैसे होता है, आसव के कारण संसार - परिभ्रमण कैसे करना पड़ता है, इन सभी का ज्ञान हो जाये तभी वह आस्रव से परावृत्त होने का प्रयत्न कर सकता है 1 यह संसार सागर के समान है। इसमें जन्म, जरा, मृत्यु आदि अनेक दुःखरूप पानी भरा हुआ है। तृष्णा और आशा रूपी महाभयंकर लहरें उठ रही हैं। ऐसे संसार - सागर में कर्म आस्रवों के कारण जीव परिभ्रमण कर रहा है। आस्रव के कारणों और दोषों को जानकर जीव जब-जब उनका त्याग करेगा, तभी वह इस संसार - सागर को पार कर सकेगा और जन्म-मरण रूप संसार-चक्र से मुक्त होकर अक्षय, अव्याबाध और सुखरूप निर्वाण को प्राप्त कर सकेगा । आनव के ४२ भेदों को भेदवृक्ष के द्वारा इस प्रकार प्रस्तुत किया जा आस्रव के बयालीस भेद सकता है ईपिथ कषाय अव्रत इन्द्रिय १- स्पर्शन १- क्रोध १- हिंसा २- रसन २- मान २- असत्य ३- घ्राण ३- माया ३- चोरी ४- चक्षु ४- लोभ ५- श्रोत्र Jain Education International ४- अब्रह्म ५- परिग्रह आम्रव योग १- मन २- वचन ३- काया क्रिया १ - कायिक क्रिया ३ - प्राद्वेषिकी ५- प्राणतिपातिकी ७- परिग्रहिकी साम्परायिक For Private & Personal Use Only २- अधिकरणिकी क्रिया ४- परिताननिकी ६- आरंभिकी ८. मायाप्रत्यया ६- अप्रत्याख्यानप्रत्यया १०- मिथ्यादर्शन प्रत्यया ११- दृष्टि-क्रिया १३- पाडुच्चिया १५ - स्वहस्तिकी १७- अज्ञापनिका १६- अनाभोगप्रत्यया २०- अणवकंखवत्तिया २१- अणापओगवत्तिया२२- सामुदाणिया २४- दोसवत्तिया २३- पेज्जवत्तिया २५- इरियावहिया १२- सृष्टि क्रिया १४- सामन्तोपनिपातिकी १६- नैशस्त्रिकी १८ - वैदारणिका www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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